सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

कुछ जज्बात मेरे भी-2

1.
प्रासंगिक तो कुछ भी न था
फिर भी एक प्रसंग सा बन गया
नाउम्मीद तो कुछ भी न था
पर कहीं एक उम्मीद सी जगी
अन्याय के समंदर में
न्याय की एक शिला जरुर थी
वह शिला अहिल्या नहीं थी
जो राम के पावन स्पर्श के इंतजार में
जमी रही समंदर लहरों में भी
हाँ शायद वो डूबने से बचने का जरिया थी
आज वह शिला कितनी अहिल्याओं को देगा सहारा
और क्या बचा पायेगा लहरों से ?
क्यों ?
जी ,क्योंकि शिला ,अहिल्या नहीं ,
पर अहिल्या शिला जरुर बना दी जाती हैं
2.
उठो पार्थ गांडीव संभालो
ऐसा ही कहा था कृष्ण तुमने अर्जुन से महाभारत में
कहाँ हो कृष्ण ?
आज महाभारत है
ध्रितराष्ट्र भी हैं जो संजय की आँखों से देखते है
हाँ कोरवों की सेना पूरी है संख्या में
पांडव भी अपनी गिनती के हैं जो धर्मराज से वचनबद्ध हैं
अश्वथामा, द्रोण गुरु ,मजबूर है
कृष्ण नहीं हैं आज
पर भीष्म पितामह आज भी हैं पर
प्रतिज्ञाबद्ध ।
3.
रिश्तों की कसमसाहट को मैंने भी महसूस किया है
कभी वो रिश्ता हमें अपने साये में महफूज़ रखता है
कभी हमें निर्वस्त्र कर देता है
हाँ रिश्ते आजकल वस्त्र की तरह होते जा रहे हैं
पर मैले होने पर बेदाग नहीं हो सकते वस्त्र की तरह
जब हमें उसकी कसमसाहट से घुटन होने लगती है
हम उसका दायरा बढ़ाने के बजाय बदल देते हैं वस्त्र की तरह
और डाल लेते हैं अपने ऊपर मज़बूरी का एक मोटा जामा
खुद को बचाए रखने के लिए
क्योंकि रिश्तों की गर्माहट कम होने लगी है
4.
आकृतियाँ बनती हैं बिगड़ने के लिए
आकृति को बिगड़ने से बचाना है
अपनी मनचाही आकृति हम खुद बनाते हैं
और उसमे अनचाहा रंग भर देते हैं
एक आकृति मैंने भी बनाई थी
उसमे सारे रंग भर दिए थे
तभी वह सफ़ेद हो गया
कहते हैं सारे रंगों का मेल
एक ऐसा रंग देता है
जो बेरंग होता है
अब आकृतियाँ तो बनती हैं
पर उसमे रंग भरने से डरती हूँ
5.
निस्तब्ध थी वो रात
बेचारगी से भरी थी दुनिया
मन का खुद से हो रहा था प्रतिरोध
और भस्म हो रहा था विश्वास
कहीं किसी ओर नहीं था कोई प्रतिकार
सन्नाटे चीर कर आई एक चीत्कार
और हो गयी फिर कोई और एक ममी में तब्दील     -अनीता 

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