रविवार, 31 अक्तूबर 2021

 भारतीय मूल का वैश्विक नागरिक मकबूल फ़िदा हुसैन 

-मिथिलेश श्रीवास्तव 


2021 का अक्टूबर महीना बीत रहा है. इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि इसी महीने में वर्ष 1996 में मक़बूल फ़िदा हुसैन पर भीषण सांप्रदायिक हमले हुए थे. इस साल इसी महीने शाहरुख़ ख़ान के बेटे आर्यन ख़ान पर नशीली पदार्थों के बहाने कानूनी हमले हुए हैं. इस मामले के अदालत में होने और ज़मानत की अर्ज़ी के मुंबई उच्च न्यायालय में पहुंचने के कारण शाहरूख़ ख़ान की अदाकारी  पर जान छिड़कने वालो और सांप्रदायिकता के विरोध में उनके विचारों से साम्य रखने वालों के मन में सैकड़ों सवाल और आशंकाएं हैं. इन्हीं सवालों से हम 1996 में जूझे थे जब सरस्वती की चित्रकृति के बहाने हुसैन पर हमले हुए थे. यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि हुसैन देश छोड़ कर भाग गए थे. हुसैन ने तब साफ़ किया था कि वे अपने वतन भारत से  मुहब्बत करते हैं, विदेश में कुछ प्रोजेक्ट करने गए थे. हुसैन की कला और विचारों से असहमत लोग कहते हैं कि हुसैन जान बचाकर विदेश भाग गए. अगर ऐसा था भी तो इसमें ग़लत क्या था.  भारतीय संविधान अपने नागरिकों को  जीने का अधिकार देता  है; विश्व के  सभी लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों  को  जीने का हक़ है; नागरिकों के जान की रक्षा व्यवस्था  नहीं सकती , तो नागरिकों को अपने तरक़ीब से ही अपना बचाव करना होगा. हम अगर समाज को सही दिशा में नहीं ले जा सकते,  तो किसी नागरिक को मरने का मशविरा नहीं दे सकते,  अगर हम सांप्रदायिकता के विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते तो किसी नागरिक को यह नहीं सकते कि वह जान बचाकर या छुपकर चला गया, धार्मिक प्रतीकों और प्रतिष्ठानों से मुठभेड़ करने से भागने लगे हम तो क्या साजिशों से हम अपने आप को बचा सकते हैं. सवाल है और यह तीखा सवाल है. मैं 1996 की सांप्रदायिक घटनाओं को एक साथ रखकर देखेंगे तो शायद महसूस कर पाएंगे कि हुसैन पर घातक सांप्रदायिक हमले हुए थे.   


मकबूल  फ़िदा हुसैन सच्चे भारतीय कलाकार थे 

अक्टूबर, 1996 और हुसैन 
समग्र भारतीय समाज को सांप्रदायिकता के नाम पर बांटने की सोची-समझी रणनीति भारतीय परंपरा, तहज़ीब और समरसता को हिन्दू पहचान देने की कोशिश है. ऐसी कोशिश पहले कभी नहीं हुई थी जो आज दिख रही है.1996 की बात है. 1994 में मक़बूल फ़िदा हुसैन की बनायी हुई  सरस्वती की कलाकृति अचानक विवादों में ले आया गया. हिंदूवादी तत्वों ने उस कृति को आधार बनाकर हुसैन को सांप्रदायिक और हिन्दू विरोधी साबित करने की मुहिम चला दी. अहमदाबाद में  हुसैन की कलाकृतियों का मान मर्दन किया गया और जला दिया गया. हुसैन के ख़िलाफ़ आरोप लगाया गया कि उन्होंने सरस्वती और दुर्गा के नग्न चित्र बनाकर हिन्दू देवियों का अपमान किया और हिन्दुओं की भावनाओं का तिरस्कृत. मक़बूल फ़िदा हुसैन स्तब्ध थे और शायद समझ नहीं पा  रहे थे कि उनके बारे में ऐसी बातें कैसे कही जा सकती हैं. हुसैन की सांप्रदायिक सद्भावना वैश्विक स्तर की थी. विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का वे सम्मान करते थे; यह तो उनकी कलाकृतियों से ही समझा जा सकता है. उस मुश्किल समय में हुसैन अकेले नहीं थे. भारतीय बुद्धिजीवी और प्रगतिशील विचारों  के समस्त कलाकार और लेखक उनके समर्थन में खड़े हो गए थे. हिंदूवादियों का आरोप यही था कि हुसैन ने हिन्दू देवी -देवताओं की  नग्न कलाकृति बनाकर हिन्दुओं का अपमान किया है. लेकिन कलाकारों और लेखकों की नज़र में उनकी कलाकृति में नग्नता और अश्लीलता  नहीं थी. सभी का  कहना था कि हुसैन को टारगेट करके भारतीय कला और साहित्य को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश हो रही है. कृष्ण खन्ना , कृष्ण बलदेव वैद, मंजीत बावा, कुमार साहनी और अशोक वाजपेयी ने उस सांप्रदायिक उन्माद को हिंदूवादी राजनीति से प्रेरित बताया था. हुसैन की 'थेओरम श्रृंखला' की कलाकृतियों का विरोध इंदौर में हिंदूवादियों ने किया था.  हुसैन इंदौर के ही हैं. थेओरम 120 फुट लंबा कैनवस है जो 7 x 15 आकार के कई पैनलों  में विभक्त है.  प्रत्येक पैनल में विश्व के प्रमुख धर्मों को रूपायित किया गया है -हिन्दुधर्म , इस्लाम, बौद्ध धर्म , क्रिश्चियनिटी, सिक्ख धर्म, ज़ोरोस्ट्रियनिज़्म, जैनिज़्म, जुडाइसम, और टाओइज़्म. दसवें पैनल में मानवतावाद को चित्रित किया गया है. उस पैनल का मकसद यह दिखाना   है कि सभी धर्मों के बुनियाद में मानवतावाद है. हुसैन की इस कलाकृति में धर्मों के सहअस्तित्व और परस्पर आदर भाव को  दर्शाया गया है.  उस कैनवस को अहमदाबाद के हुसैन-दोषी गुफा में जनवरी, 1995 में ,प्रदर्शित किया गया. अमेरिका के एक कला संग्राहक ने उस पेंटिंग को बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी सृजनात्मक पेंटिंग कहा था और उसकी तुलना पिकासो की गुएर्निका पेंटिंग से की जो स्पेनिश सिविल वार के समय में  बनाया गया था. हिंदूवादियों ने पूरे  कैनवस के मानवतावादी संदेशों को नज़रअंदाज़ करते हुए एक पैनल को टारगेट किया. जिसमें एक अर्धनग्न स्त्री का रेखांकन था और उसके नीचे सरस्वती लिखा था. भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को इस बात से घोर आपत्ति थी कि हिन्दू देवी के स्तनों को निर्वस्त्र करके दिखाया गया. अफ़सोस इन कार्यकर्ताओं ने कोणार्क और खजूराहो के भित्तिचित्रों को नहीं देखा होगा जहाँ कामुक आसनों में लिप्त स्त्री पुरुष को दिखाया गया है. सोचने की बात यह है कि यह सब मंदिरों की दीवारों पर दिखाया गया है. आश्चर्य की बात यह थी कि थेओरम श्रृंखला की चित्रकृतियां एक साल पहले कई शहरों में प्रदर्शित की जा चुकी थीं. सरस्वती नाम की कलाकृति हुसैन की जीवनी में छापी जा चुकी थी. सवाल उठा था कि उन कलाकृतियों को विरोध का विषय अचानक क्यों बनाया गया जबकि सारी कलाकृतियां सार्वजनिक डोमेन थीं. महाराष्ट्र की तत्कालीन सरकार के संस्कृति मंत्री प्रमोद नवलकर ने पुलिस को कहा था कि कोई एक ऐसा केस बनाएं जिससे कि हुसैन की गिरफ़तारी हो सके. क्या किसी विशेष मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए ऐसा किया गया था? दो बातों का जिक्र अखबारी कतरनों में मिलता है- एक, रमेश किनी का अफेयर और श्रीकृष्ण आयोग के सामने मधुकर सरपोतदार की पेशी.  जुलाई 1996 में पुणे के एक सिनेमा थिएटर में रमेश किनी मरा पाया गया था. रमेश किनी  मध्य मुंबई में लक्ष्मीकांत शाह के एक खस्ताहाल मकान में किराएदार था, मकान मालिक उसे घर से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था.  शाह राज ठाकरे के बचपन का दोस्त हुआ करता था.  आरोप था कि  राज और उनके आदमियों ने रमेश का कत्ल उस घर को  खाली करवाने के मक़सद से किया था. बाद में इस मामले की जांच सी.बी.आई. से कराई गयी थी, लेकिन सी.बी.आई. ने इस मामले को आत्महत्या बता कर खारिज कर दिया.   1993 दंगों के मामले में एक प्रत्यक्षदर्शी ने मुंबई की एक अदालत में सांसद सरपोतदार की पहचान की थी.  बताते हैं कि इन दोनों घटनाओं से ध्यान भटकाने के लिए हुसैन के ख़िलाफ़ हिंदूवादियों को भड़काया गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में घुस कर कुछ कलाकृतियों को नुकसान पहुँचाया था. उन कलाकृतियों में से एक कलाकृति हॉलैंड के कलाकार की थी. संग्रहालय को मुआवज़े के तौर पर हज़ारों डॉलर उस कलाकार को देना पड़ा था. 

हुसैन के पक्ष में लेखक 

हुसैन का जन्म महाराष्ट्र के पंढरपुर में हुआ  जोकि वैष्णव तीर्थ का केंद्र है. उनका पालन पोषण ऐसे वातावरण में हुआ जहां उन्हें हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों को जानने- समझने का अवसर मिला. सरस्वती के नग्न रेखांकन का संबंध  11वीं शताब्दी के  दिलवारा के विमला वाशी मंदिर से है. इब्राहिम अल्काज़ी हुसैन पर हुए सांप्रदायिक हमले के एकदम खिलाफ थे. उन्होंने कहा था कि हुसैन भारतीय परंपराओं को इसके धर्मों को, इसकी संस्कृति को वर्षों से देख रहे हैं.   और एक ऐसा रूपाकार सृजित कर रहे हैं जो भारतीयों के द्वारा पसंद किया गया है. अल्काज़ी ने कला को प्रमोट करने के खास मक़सद से दिल्ली के आर्ट हेरिटेज कलादीर्घा की स्थापना की थी. अल्काज़ी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप के पैट्रन थे जिसके एम एफ हुसैन  भी सदस्य रहे. अल्काज़ी मानते थे कि हुसैन की कला भारत की बहु परंपरा से  निसृत होती है. हुसैन की कला की व्याख्या करते हुए यह भी कहा गया है कि वे  फॉर्म की तलाश करते हैं, कामुकता उनकी कला में नहीं है. सुप्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी हुसैन के पक्ष में बोलते हुए केरल के गुरुवायुर मंदिर में सुबह शाम  गाए  जा रहे गीत गोविंद के पदों का उल्लेख किया जो कि इरोटिक कविता है जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंग हैं. सीता , पार्वती और देवियों की नग्न या अर्धनग्न प्रतिमाएं और कलाकृतियां बनायी जाती रही हैं. धर्म और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को अपनी संस्कृति और परंपरा का ज्ञान ही नहीं है, हुसैन की कला को देखा भी नहीं होगा, इन्हें अपने धार्मिक परम्पराओं का भी ज्ञान  नहीं होगा. फासीवादी ताकतें सबसे पहले संस्कृति को अपना निशाना बनाती  हैं. गीव पटेल का कहना था कि आम आदमी की अपनी कोई भावनाएं नहीं होतीं.  उनकी भावनाओं को बहकाया-भड़काया जाता है. कलाकार को ऐसी भावनाओं से विचलित नहीं होना चाहिए.
  
हुसैन एक संपूर्ण कलाकार 

25 सालों पहले 1996 के अक्टूबर महीने में सांप्रदायिकता और असहिष्णुता का महा भूचाल हिंदुस्तान की समकालीन कला और समाज में आया था. सांप्रदायिक और हिंदूवादी शक्तियां मकबूल फ़िदा हुसैन के ख़िलाफ़ संगठित होकर देश में हिंसा और आगज़नी फैला रही थीं. अक्टूबर के महीने में पूरा भारत गांधी को याद करने में तल्लीन था. सांप्रदायिक शक्तियां हिंसा और  असहिष्णुता फैलाने की वजहें खोजती रहीं.  25 साल पहले यही हुआ था. अपने भीतर हम  महात्मा को खोज रहे  थे लेकिन भीतर महात्मा नहीं अशांति थी. रोज़-रोज़ इतनी गहरी आक्रामकता का सामना1996 के अक्टूबर महीने में करना पड़ा  कि अशांति मन का स्थायी भाव बन गयी. निजी अभिलेखागार में बहुत पुरानी  अखबारी कतरनों को देख कर उस महीने का पूरा दृश्य और परिवेश याद आने लगा. वह आक्रामकता राजनीति से उपजी थी; सांप्रदायिकता का भय  बहुत तकलीफ़ देने वाली थी. हिंदूवादी शक्तियां कला और साहित्य को पूरी संकीर्णता की दृष्टि से देखती हैं. दरअसल ऐसी शक्तियां प्रगतिशीलता की भाषा समझती नहीं हैं. इसलिए मानव विकास की प्रक्रिया और प्रासंगिकता को भी नहीं समझती हैं. 

डॉ भगवत एस गोयल ने हिंदूवादी संप्रदायों को विचार-पुलिस कह कर सम्बोधित करते हुए हुसैन पर हुए हमले को कलाकार की वैचारिक स्वतंत्रता पर प्रहार माना था. 20  अक्टूबर , 1996 के अपने लेख में उन्होंने लिखा था कि भारत के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन के कुछ चित्रों पर अश्लीलता और धर्मनिंदा का आरोप लगा कर हुसैन को जेल भेजने की तयारी चल रही है।  जिन चित्रों को विवाद का मुद्दा बनाया गया था वे कोई नए नहीं थे और उनमें से अधिकांश 1994 में छपी और इला पाल की लिखी पुस्तक बियॉन्ड द कैनवास : एन अनफिनिश्ड पोरट्रेट आफ एम एफ हुसैन में भी छप चुकी  थीं . उस समय  इन चित्रों को लेकर कोई हो-हंगामा नहीं  हुआ और न तथाकथित हिंदुत्व की पवित्रता के तथाकथित पक्षधरों ने उस पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की. उस विवाद की शुरुआत हिंदी मासिक पत्रिका 'विचार मीमांसा ' के सितंबर, 1996 के अंक में प्रकाशित डॉ ओम नागपाल के लेख ' मकबूल फ़िदा हुसैन : यह चित्रकार है या कसाई ?' से शुरू हुआ था. उस लेख को शरारतपूर्ण लेख कहा गया. उसका एकमात्र उद्देश्य तथाकथित हिंदुत्व के उन्मादी समर्थकों को उकसाना भर रहा होगा. 
हुसैन ने कवि और लेखक पंकज सिंह को दिए अपने इंटरव्यू में अपनी कला के कई राज खोले थे. " मैंने फॉर्म लिया गुप्त काल की मूर्तियों से. सैकड़ों रेखाचित्र बनाये. गुप्त काल में जो मानवीय रूपाकार विकसित हुए और बाद में दक्षिण में ब्रोंज़ में कुछ आया उससे मैंने फॉर्म लिया. फिर लोककला की जो मासूमियत है, उसमें जो भोलापन और आनंद का तत्व है, वह लिया और तीसरी चीज़ थी रंग जिसे मैंने बसोहली और पहाड़ी चत्रकला से लिया. " हुसैन अपनी परंपरा और भारतीय विरासत में निमग्न हैं. 

हिंदुस्तान में 1996 में घटी घटनओं से साफ़ प्रामाणित होता है कि राजनीतिक कारणों से मक़बूल फ़िदा हुसैन का  विरोध हुआ था. एक कलाकार के रूप में उनकी आलोचना करना संभव नहीं था, तो उनकी रेखाओं पर हमला बोला गया अश्लीलता का आरोप लगाकर.  हुसैन ने भारतीय कला के दर्शन, कला परंपरा, कला की विरासत को बहुत गहराई से समझा था. जो कलाकार कला को लेकर अपनी परंपराओं के साथ साथ वैश्विक दृष्टि रखता था वह और उसकी कला अश्लील हो ही नहीं सकती. वे रंगों, रेखाओं और कैनवास के आगे के कलाकार थे. आविष्कार विज्ञान में ही नहीं होते कला में भी होते हैं. हुसैन नए  रंग-संयोजन के आविष्कारक थे, नई रेखाओं के आविष्कारक थे.  वे एक तरह से सभ्यता समीक्षक थे  और चित्रकला से बहुत आगे के कलाकार थे. रंग-संयोजन और रेखा और रेखांकन पर उनकी पकड़ को भारतीय दर्शक और प्रसंशक  जादुई प्रभाव सरीखा समझते हैं. भारत की लोक कलाओं से उनका गहरा संबंध उनके जन्म-स्थली पंढरपुर में ही बन गया था. हुसैन घुमन्तु कलाकार रहे इसलिए नए फॉर्म की तलाश में दुनिया भर में घूमते रहते;  दुनिया के मशहूर कला दीर्घाओं में घूम-घूम पुरखों की कलाकृतियां देखते और उनका बारीक़ अध्ययन करते और अपने लिए उपयोगी कला सामग्री और तकनीक का अविष्कार करते. मदर टेरेसा पर एक चित्र-श्रृंखला बनाने के लिए उन्हें एक विशिष्ट फार्म की आवश्यकता थी, तो हुसैन देश-दर-देश घूमते रहे और तब तक चित्र बनाना प्रारंभ नहीं किया जब तक कि उनको उपयुक्त फॉर्म मिल नहीं गया. मदर टेरेसा श्रृंखला विश्व-प्रसिद्ध हुआ. हुसैन मुसलमान समुदाय से थे, महान कलाकार रहे, राष्ट्रीय पहचान थी, तो सांप्रदायिक लोगों के लिए वे एक आसान टारगेट थे. संयोगवश हुसैन अकेले नहीं थे, उनके साथ समस्त  बुद्धिजीवी   और कलाप्रेमी थे. 

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में हुसैन के खिलाफ पुलिस कार्यवाही की मांग उठने लगी तो प्रसिद्ध विधिवेता नानी पालखीवाला ने कहा कि हुसैन के ख़िलाफ़ कोई भी कार्यवाही संकीर्णता और अंध दृष्टि से भरी हुई होगी. ऐसा करना कलाकार की  अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रहार होगा. आनंद दीक्षित ने लिखा था कि असली भारत और भारतीयता सहिष्णुता से ओतप्रोत है, बजरंग दल के  गुंडागर्दों  ने सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता का सत्यानाश किया है. हुसैन ने अपनी समझ से बुरा नहीं किया. हमारे देश में निर्वस्त्र देवी-देवताओं की भी परंपरा रही है. साथ ही साथ देवी-देवताओं के  नग्न-रूपाकारों  और उनकी विशेष प्रकृति के अनुरूप पूजा विधि और अनुष्ठान के विधानों का विस्तृत उल्लेख है. सरस्वती को नंगा दिखाने से सरस्वती नगीं नहीं हो सकती. गिरीश कर्नाड हुसैन के ख़िलाफ़ हो रहे हल्ले को फांसीवादी ताकतों का हमला कहा था. बेंगलुरु के कलाकारों ने हुसैन के साथ हो रहे बर्ताव को बर्बरता कहा. अभिव्यक्ति की बुनियादी आज़ादी और अधिकार पर हमला कहा गया. 'उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा था क्योंकि वे  मुसलमान थे.  '                                
मक़बूल फ़िदा हुसैन ने एक नग्न स्त्री की आकृति बनायी जिसकी गोद में वीणा की आकृति बनायी और उसे सरस्वती का नाम  दिया. हिंदूवादी शक्तियों को भड़कने के लिए  इतना ही काफी था. उनके भीतर इतना गुस्सा भड़का कि उन्होंने हुसैन की कलादीर्घा को तहस-नहस कर दिया. उनके इस कुकृत्य की  बुद्धिजीवी, कलाकार और  लेखकों ने  भरपूर निंदा की. उस समय हुसैन लंदन में थे. गुस्सा इतना भड़का कि हुसैन को लंदन से ही माफ़ीनामा भेजना पड़ा. बजरंग दल और उनकी सहयोगी संस्थाओं ने हुसैन की सरस्वती नामक चित्रकृति में हिन्दू भावनाओं और संवेदनशीलता को आहत और चोट पहुंचाने की दुष्चेष्टा के रूप में देखा. वे इसे बहुमत समुदाय की भावना को आहत करने के रूप में देखा.  भावना को आहत करने वाली बात हिंदूवादी संगठनों को ही सूझती है. ये संस्थाएं भय का माहौल बनाती हैं और प्रगतिशीलता की राहों को कमजोर करने की कोशिश करती हैं. उस साल भी यही हुआ था. सरस्वती जैसी दिखने वाली एक कलाकृति को जैसे ही हुसैन ने सरस्वती कहा, कि वे उनपर टूट पड़े. भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से भी ये ताकतें अपनी शक्ति का संचय करती हैं. एक नज़र उस वर्ष की राजनीतिक परिदृश्य पर भी डालना मुनासिब होगा. 1996 के अप्रैल और मई महीनों में 11 वें लोकसभा का आम चुनाव हुआ.  चुनाव परिणाम जब आए तो पता चला कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है हालांकि भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और उसे सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन बहुमत साबित करने के पहले ही अटल बिहार वाजपेयी को प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा. उसके बाद नेशनल फ्रंट की स्थापना की गयी जिसकी सरकार एच डी देव गौड़ा के नेतृत्व में चली. 1997 में इंद्र कुमार  गुजराल  के नेतृत्व में सरकार बनी. लेकिन बहुमत के अभाव में कोई भी प्रधान मंत्री स्थिर सरकार देने में असफल रहा.  इसलिए 1998 में लोकसभा के फिर से चुनाव हुए. उस  चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं. सीपीएम ने 32 सीटें जीती और सीपीआई के खाते में सिर्फ 9 सीटें आईं.  समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और बसपा को 5 लोकसभा सीटें मिलीं.  क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं.  भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे.  लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीनों  में ही गिर गई.  एआईएडीएमके ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और देश फिर से एक बार मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ था.  1996 में सरकार की अस्थिरता शुरू हुई तो कई प्रधानमंत्री एक बाद एक बने. अटल बिहारी वाजपेयी पहले टर्म में 13 दिन और दूसरे टर्म में 13  महीने रहे थे. अटल जी भले ही सॉफ्ट हिंदुत्व के पोषक थे लेकिन भाजपा  और उसकी सहयोगी संस्थाएं हिंदुत्व के नाम पर उपद्रव मचाती रही हैं. राजनीतिक अस्थिरता का सबसे ज्यादा फायदा इन्हीं प्रवृत्तियों को मिला. 1993 में बाबरी मस्जिद के विध्वंश के बाद इनका राजनीतिक रसूख बढ़ता गया और बहुमत के सिद्धांत को भारतीय मानस में फैलाया गया. हिंदुओं की भावनाओं को आहत होने की बात इतनी जोर शोर से होने लगी कि कला साहित्य और सांस्कृतिक सक्रियता को नुकसान होने लगा. गुजरात में भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जड़ें भी फैली हुई थीं. 1995 से गुजरात में भाजपा के मुख्यमंत्री रहे-केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता, नरेंद्र मोदी इत्यादि. भाजपा जब सत्ता में होती है तो माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है और जब सत्ता में नहीं होती सत्ता पाने के लिए सांप्रदायिक माहौल बनाती है. देश में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे अधिक नुकसान एम एफ हुसैन को हुआ. हिंदूवादी शक्तियों के लिए सांप्रदायिकता सबसे बड़ा राजनीतिक अस्त्र है और इस अस्त्र को चलाने में वे कभी नहीं हिचकते.
 
1996 में राष्ट्रीय स्तर पर अस्थिरता आ गयी थी जब 11 वें लोकसभा के चुनाव में किसी राजनीतिक दल को बहुमत  नहीं मिला , भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और उसका वोट प्रतिशत लगातार बढ़ रहा था. पार्टी को मजबूत करने के कवायद में भाजपा और उसकी सहयोगी संस्थाएं मौके की तलाश में बैठी रहती थीं , बैठी रहती हैं. साम्प्रदायिकता उनका सबसे बड़ा राजनीतिक अस्त्र हो गया है. मकबूल फ़िदा हुसैन पर सरस्वती नाम की कलाकृति के बहाने आक्रमण राजनीतिक अस्त्र के रूप में 1996 में इस्तेमाल होने लगा. हिन्दुओं को बहुमत समुदाय के रूप में प्रक्षेपित करना उसी राजनीतिक चाल और ढाल का हिस्सा रहा. कलाकारों, पत्रकारों और लेखकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकारों ने इस बात की वकालत करनी शुरू कर दी कि अब्सोल्युट आज़ादी नाम की कोई चीज़ नहीं होती है. समाज में इस तरह की बहस उसी समय से शुरू नहीं हुआ था लेकिन बहस की तीव्रता बढ़ गयी थी और धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ती जा रही थी. 

हुसैन के पक्ष में साहित्यकारों और कलाकारों का स्टैंड स्पस्ट था और वे हुसैन के मुखालफ़त की आड़ में सांप्रदायिकता की आग को साफ़ साफ़ देख रहे थे. अंग्रेजी के भारतीय लेखक मुल्क राज आनंद हुसैन पर हुए हमले को घृणा और अंध पूर्वग्रह से प्रेरित बताया. 21 अक्टूबर, 1996 की  अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा था हुसैन रेखाओं, रंगों और रूपाकारों के जन्मजात  प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं. मानवीय दशा से अवगत हैं. ग्रामीण स्त्री को ऊर्जा के रूप में चित्रित किया है, किसी फोटोग्राफर के स्थूल दृष्टिकोण से देखते हुए नहीं. हुसैन लोक और आदिवासी संस्कृति से गहरे परिचित थे.  हुसैन ने पौराणिक देवताओं के ऐसे चित्र बनाये हैं जिनमें लोगों की रुचि पुनः जागृत हुई. पाकिस्तान के तानाशाह को बांग्लादेश में पराजित करने के बाद इंदिरा गांधी को दुर्गा के रूप में दिखाया जो  महिषासुर को मारती हुई दिखाई गयी हैं. हुसैन दुर्गा, गणेश जैसे देवी देवताओं के चित्र बनाते रहे हैं हुसैन ने एक ऐसी भी बड़ी कलाकृति बनायीं जिसमें संसार भर के धर्मों के प्रतीकों को चित्रित किया है. मुल्कराज आनंद  हुसैन के साथ थे. सरस्वती को चित्रित करने के लिए जिस फॉर्म का चुनाव  हुसैन ने किया वह  ज्ञान के सौंदर्य को रूपायित करता है. जो लोग राम और सीता की भड़कीली वस्त्रों में लिपटी छोटी प्लास्टिक मूर्तियां  अयोध्या के मंदिर में लगाना चाहते हैं  उन्हें  हुसैन की सरस्वती में नग्नता ही दिखायी देगी. ऐसे लोगों को एलोरा की गुफाओं की मूर्तियों और उनकी कामुक मुद्राओं को देखना चाहिए. ऐसे लोगों को एलोरा में शिव और पार्वती की कलाकृति देखनी चाहिए जिसमें उन्हें गृह्य परमानन्द की अवस्था में कैलाश पर बैठा हुआ दिखाया गया है. ऐसे लोग तो अजंता की गुफाओं में कभी गए ही नहीं, जहां डार्क राजकुमारियों की कामुक प्रतिमाएं मौजूद हैं. खजुराहो के मंदिरों की दीवारों के मूर्तिशिल्प को भी नहीं देखा होगा जिस पर युवा प्रेमियों की रतिक्रिया और संभोग के दृश्य हैं. हिंदुत्ववादी और साम्प्रदायिकतावादी लोग भारतीय सृजनात्मकता की विरासत को समझना ही नहीं चाहते और कला में उस सृजनात्मकता को अपने समय में चित्रित करने वालों को नज़रअंदाज करना चाहते हैं. हिंदूवादी सोच की  वकालत करने वालों की निंदा होनी चाहिए क्योंकि वे सांस्कृतिक विरासत की अनदेखी करते हैं और अंध सांप्रदायिक द्वेष और घृणा फैला रहे हैं. इन बातों से यह साफ़ होता है कि हिंदूवादी सोच प्रगतिशीलता में बाधक है.  कला, साहित्य और नृत्य प्रगतिशील नहीं होंगे  तो समाज बदलेगा कैसे. नृत्य की भंगिमाओं को ही लें. अगर नृत्य पोस्चर को हिंदूवादी नजरिए से देखें तो सारे नृत्याशान अश्लील ही लगेंगे. ए एन धर हुसैन से ही अपेक्षा कर रहे थे कि उन्हें बंद कमरे के पीछे बैठ कर सरस्वती की रचना करनी चाहिए. भारत के हिन्दू धर्मपरायण हैं और उनकी भावनाएं ऐसी बातों से आहत होने  लगती हैं. ए एन  धर से सहमत नहीं हुआ जा सकता.       

यह पहचानना मुश्किल नहीं था कि हुसैन के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक विद्वेष कौन फैला रहा था. कलाकारों ने विरोध दिवस मनाया और सरकार से मांग की कि बजरंग दल के उपद्रवियों  के ख़िलाफ़ कार्यवाही होनी चाहिए जिन्होंने हुसैन की कलाकृतियों को अहमदाबाद में नष्ट किया था. कलाकारों की यह भी मांग थी कि हुसैन और और उनकी कलाकृतियों को समुचित सुरक्षा प्रदान की जाए ताकि बजरंग दल के उपद्रवी कोई नुकसान नहीं कर सकें. उस सांप्रदायिकता के खिलाफ देशव्यापी विरोध हुआ. कृष्ण खन्ना,  मनु पारेख ,जतिन दास, अर्पिता सिंह,गुलाम शेख , अकबर पदमसी, परितोष सेन, पुष्पमाला, गीव पटेल, नवजोत अल्ताफ़  और अनेक युवा कलाकारों की बनायी हुई कलाकृतियों के पोस्टर बनाए गए और उन पोस्टरों को तमाम शहरों में लगाया गया ताकि हुसैन की कालकृतियों को नष्ट करने का इरादा रखने वालों का विरोध हो . यह विरोध 18 अक्टूबर, 1996 को किया गया. कला महाविद्यालयों, कला दीर्घाओं, कला संस्थानों को भी बंद रखा गया. रविंद्र भवन में लेखक, कलाकार, कलादीर्घा के मालिक और कला के ख़रीदार एक जगह इकट्ठे हुए और हुसैन का समर्थन किया और कलाविध्वंस और बर्बर व्यवहार को रोके जाने की अपील की. हुसैन को सरस्वती का पुजारी बताया गया. पुजारीपन   और श्रद्धा  के बगैर  सरस्वती को चित्रित करने का फॉर्म प्राप्त ही नहीं किया जा सकता. यह बात सिर्फ अपनी विरासत और परंपरा  के जानकार और समझ रखने वाले ही जान सकते हैं. कला के विनाशक इस बात को समझ नहीं सकते. हिंदी के लेखक निर्मल वर्मा ने उस समय कहा था कि जिस लगन और प्रेम से रामायण और महाभारत को हुसैन ने चित्रित किया है किसी और कलाकार ने नहीं किया  कृष्ण बलदेव वैद हुसैन की माफ़ीनामा पर बोलते हुए कहा था कि यह सच है कि हुसैन  ने माफ़ी मांगी है क्योंकि उनको लगता है कि सरस्वती की निर्वस्त्र रेखांकन से देशवाशियों का दिल दुखा  है लेकिन हुसैन ने यह नहीं कहा है उनकी कला में कोई खोट है. राजेंद्र यादव का कहना था कि हुसैन ने एक व्यक्ति के रूप में माफ़ी मांगी है एक कलाकार के रूप में नहीं इसलिए उन्होंने कला से कोई समझौता नहीं किया है. बिस्मिल्लाह खान से क्या हम कह सकते हैं कि वे गंगा के घाटों पर शहनाई बजाना बंद कर दें या कि भजन नहीं गाएं. बी सी सान्याल ने हुसैन की कलाकृतियों को नष्ट करने की घोर निंदा की थी और कहा था कि यह ख़तरनाक प्रवृति है कि जो आपको अच्छा नहीं लगे उसे आप नष्ट कर देंगे. रामचंद्र गांधी ने कहा था कि आपके भीतर इतनी हिंसा भर गयी है कि आज आप कलाकृति नष्ट कर रहे हैं और कल आप मोहल्ला जला देंगे. हुसैन की सरस्वती को नष्ट करने की तुलना रामायण की सीता से किया था कि एक औरत को बार बार अग्नि-परीक्षा से गुजरने की वकालत नहीं की जा सकती. रामचंद्र गुहा ने कवि और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से आह्वान किया था कि  कहाँ हैं आप; आप से उम्मीद की जाती है कि कला के अपवित्रीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे. याद कर लीजिए कि वाजपेयी जी कुछ समय पहले ही 13 दिन की सरकार  के प्रधानमंत्री थे. बहुमत न होने और संगत न मिलने की वजह से प्रधानमंत्री पद से  13 दिनों में ही इस्तीफा देना पड़ा था. जतिन दास ने तो यहाँ तक कहा कि  नग्न या निर्वस्त्र कलाकृतियां मोहनजोदड़ो सभ्यता के समय से बनाया जाता रहा है जहाँ खुदाई में नग्न नर्तकी का मूर्तिशिल्प मिला है. नग्नता कला के प्रत्येक रूप में चित्रित हुई है फिर भी उसे अश्लील नहीं माना गया है.शिवलिंग की पूजा होती है तो क्या शिवलिंग  अश्लील हो गया. निर्मल वर्मा ने साफ़ कहा कि आज़ादी पर किसी भी तरह का नियंत्रण या पाबंदी बर्दास्त नहीं की जानी चाहिए. विवान सुंदरम ने इस बात की जरूरत पर जोर दिया कि संस्कृति  के स्पेस  का बचाव होना ही चाहिए.  यह भी याद किया गया: सलमान रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध,सफ़दर हाशमी की हत्या,तस्लीमा नसरीन को शरण देने से इंकार सरीखे ऐसे मामले हैं जिससे हिंदुस्तानी हुक्मरानों की मानसिक दशा का पता चलता है. यह इत्तेफाक नहीं था कि हुसैन की कलाकृतियों को नष्ट करने की मुहिम की शुरुआत गुजरात राज्य से  हुई जहां भारतीय जनता पार्टी  मुश्किलों में थी और उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले थे. सतीश गुजराल ने हुसैन की धर्मनिरपेक्षता और भारतीयता पर सवाल उठाने वालों की तीव्र निंदा की. हुसैन की कला किसी भी चीज़ को अपवित्र नहीं करती है. नग्न और नग्नता में अंतर करने की  आवश्यकता है. गुजरात से हिंसक प्रवृतियां दिल्ली तक पहुंची. एक तरफ जहां कुछ कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने हुसैन के चित्रों की प्रशंसा की वहीं दूसरी ओर राष्ट्र सेविका समिति और अखिल भारतीय सनातन धर्म प्रतिनिधि सम्मेलन ने भारी आक्रोश व्यक्त करते हुए हुसैन की कठोर शब्दों में भर्त्सना की. हुसैन के इस कृत्य को राष्ट्र विरोधी कहा गया. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट ने बजरंग दल के कार्यकर्ताओं द्वारा हुसैन की कुछ कृतियों को अहमदाबाद की एक आर्ट गैलरी में नष्ट किये जाने की घटना की कड़े शब्दों में निंदा की. दोषी व्यक्तियों को गिरफ्तार कर   उन्हें कड़ी सज़ा दिए जाने की मांग की. पार्टी पोलित ब्यूरो ने एक बयान जारी करके गहरी चिंता व्यक्त की. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के सहयोगी संगठन बजरंग दल द्वारा हुसैन की कथित रूप से चित्रों को आग लगा कर  नष्ट करना निंदनीय कृत्य माना.   

मक़बूल फ़िदा हुसैन की क्षमायाचना 
 हुसैन ने लंदन से अपना माफ़ीनामा भेजा था जिसमें साफ़ तौर पर लिखा था , " यदि उनकी किसी कृति से कुछ लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं तो वह इसके लिए क्षमा मांगते हैंं. इन कृतियों के जरिये जान-बुझ कर या सोच समझ कर किसी को आहत करने की मेरी कोई मंशा नहीं थी. ऐसा भी नहीं है कि कला के प्रति मेरा प्रेम कम है, लेकिन मैं इंसानों को अधिक प्यार करता हूं भारतीय परंपरा और धर्म से संबंधित कुछ विवादास्पद कृतियों के कारण कुछ देशवासी उन पर नाराज़ हो गए. " हुसैन की क्षमायाचना हिंदूवादी उपद्रवियों को पसंद नहीं आया और  हुसैन उनके टारगेट बने रहे,   हुसैन आखिरकार भारत छोड़कर चले गए 2006 में.  दोहा और लंदन में रहे, मरने के दिन तक लेकिन स्वदेश लौटने की प्रबल इच्छा उनके भीतर थी भले ही उन्हें सजा हो जाती.

हुसैन का कहना था कि वे स्व-निर्वासन में नहीं हैं, न पुलिस और अदालत के भय से  आये हैं. उन्हें भारत के अदालत पर भरोसा है. वे भारत से बाहर आये हैं क्योंकि उन्हें तीन प्रोजेक्टों पर काम करना था. भारत सरकार ने भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों के लिए विशेष सुविधाओं के लिए कानून बनाया है. मैं हूं. अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए 2010 में हुसैन ने बताया था कि वे 2005 में भारत से बाहर आ गए थे।  
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गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

 अमेरिका प्रवास

प्रबल नागरिकता बोध  
-मिथिलेश श्रीवास्तव 


रेलवेयार्ड  
हम जहाँ ठहरे थे वह संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व प्रसिद्ध सिलिकॉन वैली है जो कैलिफोर्निआ राज्य का हिस्सा है; यहीं से इलेक्ट्रॉनिक रेवोलुशन शुरू हुआ था. फेसबुक, यूट्यूब संस्थानों के दफ्तर हैं. ज्यादातर दफ़्तर सुनसान दिख रहे थे  क्योंकि उनके कर्मचारी घर से ऑनलाइन दफ्तर कर रहे थे. हमारे घर के पीछे एक रैलयार्ड था  जहाँ से सिर्फ रेलगाड़ियाँ आती जाती हैं. बिजली या डीज़ल के ईंजन इन मालगाड़ियों को लोहे के रेलट्रैक पर खींचते हैं जैसे हमारे देश में लोहे की पटरियों पर ऐसे ईंजन चलते हैं. बहुत दिनों के बाद किसी रेलयार्ड को इतने करीब से देख रहा था  जहाँ रेल शंटिंग दिनभर चलता रहता है. रेलवे की भाषा में शंटिंग उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें डिब्बों को इधर से उधर किया जाता है.  दिनभर डब्बों की शंटिंग की आवाज़ शोर भरे संगीत की तरह आती जाती है. इस रेलयार्ड से मोटर कारें एक शहर से दूसरे शहर भेजी जाती हैं या दूसरे शहर से इस शहर लायी जाती हैं. मालगाड़ियों का आना जाना या डिब्बों की शंटिंग देखने में अच्छा लगता है और उदास भी करता है. इतने करीब से चलती हुई रेल को तब देखा करता था जब पिता के साथ गांव जाया करते थे. लूप रेललाइन के सिंगल ट्रैक वाले  मीटरगेज (छोटी पटरी ) पर भाप ईंजन से चलने वाली रेलगाड़ी किसी भी स्टेशन पर क्रासिंग के लिए देर रुक जाया करती और हम बच्चे ट्रेन से उतरकर प्लेटफॉर्म पर टहलते और ईंजन को भी देखते. मालवाहक रैलयार्ड को देख कर उसी तरह के रोमांच से मैं भर गया. कोई अमेरिकी उस रैलयार्ड को देखकर रोमांचित नहीं हो रहा होगा लेकिन विकासशील देश से एक विकसित देश में आकर अपने देश जैसा रेलयार्ड  देखकर रोमांचित कैसे नहीं होता. सुबह की सैर में निकलता और रैलयार्ड के पास आकर देर तक उसे देखता रहता. दिनभर ट्रकों की आवाजाही, दिन मालवाहक रेलगाड़ियों का आना जाना. कोरोना संक्रमण यहाँ भी गंभीर है. भारत की तरह लॉकडाउन यहाँ नहीं हैं लेकिन लोग हिसाब से घरों से निकलते हैं. कोरोना समय में ही मैं अमेरिका आने का फ़ैसला किया था.              

कोरोना काल में भी लोकतांत्रिक तहज़ीबों का पालन 
भारत में सरकारी घोषणा के पहले ही दिल्ली में कोरोना संक्रमण की गंभीरता महसूस होने लगी थी. खबरों में कोरोना संक्रमण के फैलाव और कोरोना से हो रही मौतों के बारे में सुन सुन कर  मन घबड़ाने भी लगा था लेकिन सबसे अधिक घबड़ाहट यह सुनकर  हो रही थी कि अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित पीड़ितों के लिए बिस्तर कम पड़ रहे हैं.  कोरोना संक्रमित मरीज़ बिस्तर की तलाश में एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटक रहे   थे और उसी दुर्भाग्यपूर्ण यात्रा में मर रहे थे.   कोरोना संक्रमण  महामारी में परिवर्तित हो रहा था ,  2020 के मार्च महीने के आखिरी दिनों से घर में एक तरह से क़ैद हो गए थे, दोस्तों, परिचितों और संबंधियों से मिलना-मिलाना जोखिम जैसा लगने लगा. घर से बाहर निकलना ही जोखिम भरा हो गया.  इन्हीं स्थितियों में मैंने अमेरिका जाने का मन बना लिया हालांकि अमेरिका में भी कोरोना संक्रमण की स्थिति गंभीर ही थी. अंतर्राष्ट्रीय हवाई उड़ाने रद्द  हो चुकी थीं. अमेरिका जाते तो कैसे जाते? पता चला कि एयर इंडिया वंदे मातरम नाम से विशेष हवाई उड़ानें उन देशों के लिए आरंभ कर रहा है जहाँ भारतीय नागरिक हवाई उड़ानें बंद होने की वजह से फँसे हुए हैं. बंदे मातरम उड़ानें अमेरिका के शहरों के लिए भी थीं, लेकिन उन उड़ानों की सार्वजनिक घोषणा के पहले ही टिकटें बुक हो जातीं. जानकारों का कहना था कि एयर इंडिया और भारत सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्रालय से बंदे मातरम उड़ानों की खबरें रसूखदारों को पहले ही मिल जाती हैं इसलिए सार्वजनिक घोषणा के पहले ही टिकटों की बुकिंग हो जाती है. एयर इंडिया के बंदे मातरम उड़ानों की मारामारी के बीच  खबर मिली कि अमेरिकी सरकार ने मांग की है कि बंदे मातरम उड़ानों के बदले अमेरिकी एयर लाइनों को  भी उड़ानें भरने की इजाज़त भारत सरकार दे. भारत सरकार और अमेरिकी सरकार के बीच सहमति होते ही अमेरिका के यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ानें अमेरिकी शहरों से दिल्ली आने जाने लगीं. यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ानों की खबर सचमुच सार्वजनिक रूप से हुई और आम लोगों की पहुँच के भीतर रही. नतीजतन, दिल्ली  से सन फ्रांसिसको की टिकट यूनाइटेड एयरलाइंस में मिल गयी, 22 जुलाई, 2020 की टिकट . लेकिन मन में संदेह के बादल छाए रहे कि कहीं कोरोना संक्रमण के चलते हवाई जहाज में बोर्डिंग पर प्रतिबंध न  लग जाए. मन का संदेह निर्मूल निकला क्योंकि  दिल्ली एयरपोर्ट के टी-3 टर्मिनल पर कहीं किसी ने कुछ भी नहीं पूछा कि क्यों, कहाँ जा रहे हैं; कि कोरोना के लक्षण तो नहीं हैं. बाहरी गेट पर शरीर का तापमान जरूर लिया गया और बक्सों को एक्सरे मशीन जैसी सेनिटाइज़र मशीन से सेनिटाइज़ कराना पड़ा. यूनाइटेड एयरलाइंस के हवाई जहाज में बैठने के पहले उन्हीं के दिए पीपीई किट पहनना पड़ा. पुरे हवाई उड़ान के दौरान और दोनों हवाई अड्डों पर रुके रहने के समय पीपीई किट पहने रहना पड़ा था.  दिल्ली से यूनाइटेड एयरलाइंस की  सन  फ्रांसिस्को की उड़ान शुरू हुई. वह 16  घंटों की सीधी उड़ान थी, दिल्ली से कैलिफोर्निआ राज्य के सन फ्रांसिस्को अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे तक की. मैंने कई बार सोचा कि एयर इंडिया की उड़ानों की ख़बरें सार्वजनिक होने के पहले रसूखदारों को क्यों मिलती थीं, जबकि यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ानों की खबरें सचमुच सार्वजनिक हुई थीं. अमेरिका प्रवास के दौरान मुझे महसूस हुआ की वहां सिस्टम नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करता बल्कि लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप देखने को मिलता है. सरकार का हस्तक्षेप अमेरिकी नागरिक बर्दाश्त नहीं करते; पैसा देते हैं और सेवाएं लेते हैं. इसलिए वहाँ अमीर गरीब या गोरे  काले के कारण भेद भाव नहीं होता. गोरो के मन में कालों के प्रति वैसा ही प्रतिरोधी भाव दिखने को मिलता है जैसे भारत में अगड़ों के मन में दलितों के प्रति भाव रहता है, बावजूद कि कानून और संविधान इस भेदभाव की इज़ाज़त नहीं देता. खरीदने की क्षमता है, तो आप भेद भाव के बगैर हर तरह की सेवा लेने के हक़दार हैं. सरकार की भी कोशिश रहती है कि अमेरिकी नागरिक जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप हो. 22 जुलाई 2020 की सुबह दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ान शुरू हुई और लगभग 16 घंटे हवा में रहने के बाद सन  फ्रांसिस्को  अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर वायुवान उतरा, क़रीब क़रीब पांच बजे सुबह.  यूनाइटेड एयरलाइंस के हवाई जहाज के दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उड़ते समय और सन  फ्रांसिसको अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरते समय मन में घबराहट नहीं हुई. घबराहट तो तब भी नहीं हुई जब हवाईजहाज लगभग सोलह  घंटे आकाश में रहा.  अपने यहाँ हवाई जहाज उड़ने से लेकर   लैंडिंग तक घबराहट की एक लकीर मन के ग्राफ पर बनता रहता है और इत्मीनान तब होता है जब हवाई जहाज से बाहर आ जाते हैं. एक भारतीय का अमेरिकी सिस्टम पर इतना भरोसा शायद अच्छा नहीं माना जाएगा लेकिन क्या करें, अमेरिकी पायलटों के प्रशिक्षण और अनुभव,  अमेरिकी तकनीक और अमेरिकी वायुवानों के रखरखाव पर विकासशील देशों के नागरिक अधिक भरोसा करते हैं.  भारत में मार्क्सवादी विचारों के लोग अमेरिका और वहाँ की पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना करते, थकते नहीं हैं. शायद हम भूल जाते हैं कि अमेरिका में लोग रहते हैं और हम लोगों की आलोचना नहीं कर सकते, नहीं करना चाहिए. हाँगकाँग में लोकतंत्र और बोलने और विचार करने की आज़ादी की मांग करने वालों और इसके समर्थन में आंदोलन करने वाले लोगों पर जुल्म ढा रहे चीन के ख़िलाफ़ भारतीय मार्क्सवादी लोग कोई आवाज़ नहीं उठा रहे हैं. रूस में एक व्यक्ति के शासन के ख़िलाफ़ हम कोई आवाज़ हिंदुस्तान में नहीं उठाते. हिंदी के एक कवि और प्रोफेसर ठीक ही कहते है कि भारत में हम मार्क्सवादी महँगी कारें खरीदने में ही मार्क्सवाद की सार्थकता देखते हैं. हिंदी के एक आलोचक रवि भूषण का कहना है कि अमेरिकी लोग कमाओ और खाओ की जिंदगी जीते हैं. वे ठीक कहते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि  अमेरिकी कठिन श्रम करते हैं तब जाकर उन्हें एक खुशहाल जिंदगी नसीब होती है. अमेरिकियों के श्रमसाध्य कर्म का ही  फल है कि दुनिया का जीवन आसान हुआ है. सिलिकन वैली के जादू को आज वैश्विक स्तर पर मान्यता मिली हुई है. एक मज़ेदार बात यह है कि यहाँ भारतीय अमेरिकन नागरिकों की संख्या बढ़ती जा रही है पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ग्रीन कार्ड और नागरिकता देने की प्रक्रिया धीमी कर दी थी लेकिन उम्मीद है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जाय बाइडेन इन प्रक्रियाओं को तेज करेंगे . इस बार तो अमेरिका की उपराष्ट्रपति एक इंडियन अमेरिकी चुनी गयी हैं जिनकी माँ ऊंच शिक्षा के लिए चेन्नई से वहाँ गयी थीं. पढ़े लिखे भारतीयों का अमेरिका पलायन तो हम रोक नहीं पा रहे हैं तो अमेरिका की आलोचना क्यों. प्रीमियर इंजीनियरिंग संस्थानों और मेडिकल कॉलेजों और आई आई एम संस्थानों से पढ़ लिख कर बच्चे अमेरिका जा रहे हैं, मेहनत करते हैं और खुशहाल जीवन अर्जित कर रहे हैं. अमेरिका को लेकर रवि भूषण की टिप्पणी अवांछित लगी. हिन्दुस्तान में भी कमाओ खाओ की संस्कृति तेजी से फ़ैल रही है | गुरुग्राम, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे शहरों में क्या हो रहा है, रवि भूषण से छिपा नहीं होगा. इन शहरों में भी बहुमंजिली इमारतों की संस्कृति फ़ैल रही है.

  सिटी लाइट्स  पुस्तक भंडार
        सन  फ्रांसिसको  अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे से बाहर निकलने से पहले अमेरिकी इमीग्रेशन से गुजरना पड़ता है. इस इमीग्रेशन से बहुत डर लगता है. मन में बेवजह ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है. बार बार यही ख्याल आता है कि कहीं किसी वजह से या कोरोना संक्रमण के नाम पर एयरपोर्ट से लौटा न दें.संसार के व्यस्ततम हवाई अड्डों में से यह हवाई अड्डा है लेकिन  इस बार हवाई अड्डे पर सन्नाटा पसरा हुआ था , बहुत कम लोग दिखाई दे रहे थे; जाहिर है इसकी वजह कोरोना संक्रमण है. अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों पर विश्व भर में प्रतिबंध लग चुका था.  उसीका असर था . एक बार फिर यहाँ आने के अपने फैसले पर मुझे संदेह होने लगा कि ऐसी  महामारी समय में मैं क्योंकर आ गया. अमेरिकन  इमीग्रेशन इस बार सहज लगा; पासपोर्ट देखा, चेहरा देखा, उँगलियों  के निशान लिए, शायद आँखों की पुतलियों की तस्वीर उतारी, पासपोर्ट पर ठप्पा लगाया और जाने का अनुरोध किया. पिछली बार की तरह कोई सवाल नहीं पूछा, मसलन, अमेरिका में क्या करने आ रहे हैं, कब तक रहेंगे,एक नया सवाल  भी कि  कोरोना तो नहीं है इत्यादि. जैसे ही अमेरिकन इमीग्रेशन अधिकारी ने अदब से कहा, जाइए, मैं सामान लेकर भागा; बेवजह डरा हुआ आदमी ऐसे ही भागता है. जुलाई में सन फ्रांसिस्को  हवाईअड्डे के बाहर दिल्ली के दिसंबर महीने जैसी ठंड थी. एक तो बगल में प्रशांत महासागर है जिसके ऊपर से गुजरती हुई बयार ठंडी हो जाती है, दूसरे पहाड़ी इलाका है, तीसरे सन फ्रांसिसको हवाई अड्डा बे-एरिया में है. बे-एरिया प्रशांत महासागर के बैकवाटर्स को कहते हैं ;यह बैक-वाटर्स गोल्डन गेट के नीचे से कैलिफोर्निआ के मेनलैंड में प्रवेश करता है और काफी दूर तक अंदर तक आता है. बे-एरिया इतना बड़ा है कि इस पर कई ज़िले बसे हुए हैं. सन फ्रांसिसको हवाई अड्डे से हमारा निवास लगभग एक घंटे का मोटर का सफर है, जिसमें कई रेड-लाइट्स पड़ते हैं; सड़कें  सुंदर और चौड़ी हैं; सुबह का समय था , तो ट्रैफिक कम थी, कोरोना संक्रमण के समय में घर से काम हो रहा है, इसलिए भी ट्रैफिक कम थी .  सन  फ्रांसिसको शहर विश्व-प्रसिद्ध शहर है जो प्रशांत महासागर के तट पर है. यहाँ अंग्रेजी और अंग्रेजी में अनूदित पुस्तकों की एक बड़ी और विश्व-प्रसिद्ध दुकान है, सिटी -लाइट्स. भाई, मित्र और कवि मंगलेश डबराल ने सिटी लाइट्स का पता दिया था और इसके बारे में तब बताया था जब 2017 में अमेरिका आ रहा था और उन्होंने मुझसे इसरार किया था कि मैं इस पुस्तक भंडार में जरूर जाऊँ. मैं गया था और इस पुस्तक भंडार को देखकर मुग्ध हो गया था. दुनिया भर की भाषाओँ के साहित्य के  अनुवाद की किताबें थी. मंगलेश डबराल ने यह भी बताया था कि जब वे कवि के रूप में अमेरिका के  आयोवा विश्वविद्यालय  में आमंत्रित किए  गए थे तो अन्य देशों के  आमंत्रित कवियों के साथ सन फ्रांसिसको गए थे और उस पुस्तक भंडार में भी गए थे. कोरोना संक्रमण के डर  से इस बार सिटी लाइट्स पुस्तक भंडार जाना नहीं हो पाया. राष्ट्रीय राज मार्गों का संजाल फैला हुआ है. एक राष्ट्रीय राजमार्ग से दूसरे राष्ट्रीय  राजमार्ग , एक निकास मार्ग से दूसरे निकास मार्ग होते हुए निवास की तरफ बढ़ता गया.  सडकों और मार्गों के संजाल में भटक जाने की  संभावना बहुत प्रबल है लेकिन शुक्रिया गूगल का जो सही सही रास्ता बताता  चलता है. गूगल नक्शे के बगैर अमेरिका में अपने गंतव्य तक पहुँचना अमेरिकियों के लिए बहुत मुश्किल लग रहा है. गूगल मैप के सहारे तो अब इंडिया में भी चला जा रहा है और शायद दुनिया भर में. इन्हीं दिनों रवि भूषण से फ़ोन पर बात हुई और वे जानना चाहते थे कि अमेरिका में मैं  कहाँ हूँ . मैंने कहा कि कलिफोर्निआ. उन्होंने फिर पूछा कि कलिफोर्निआ में कहां. मैंने कहा सन फ्रांसिस्को. रवि भूषण ने फिर पूछा सन फ्रांसिस्को में कहा. मैंने कहा सिलिकॉन वैली.  रवि भूषण ने पूछा सिलिकॉन वैली में कहां. रवि भूषण ऐसे पूछ रहे थे जैसे कि अमेरिका का चप्पा चप्पा छान कर गए हैं. उनका ऐसे पूछना उनका कुटिल और जटिल स्वभाव है जो अध्यापक होने और मार्क्सवादी होने से बना है. शायद वे इतना ही समझ पाए कि मैं अमेरिका में हूँ.  मेरे और रवि भूषण के बीच हुई इस निजी बातचीत को सार्वजनिक करना जरूरी नहीं है लेकिन इसलिए बताना पड़ा कि अमेरिका का भूगोल बहुत बड़ा है और जनसंख्या केवल 35 करोड़ और सिलिकन वैली भारतीयों से भरा पड़ा है. इंडियन मार्केट्स हैं जहाँ भारतीय लोगों की ज़रूरतों का भारतीय सामान उपलब्ध है.    

 मंगलेश डबराल का जाना           
                       यूनाइटेड एयरलाइंस का दिया हुआ पीपीटी किट सानफ्रांसिस्को एयरपोर्ट के बाहर ही निकल कर डस्टबिन में फेंक दिया.   जुलाई महीने में दिल्ली से अमेरिका आ गया. कोरोना दोनों जगह ऐसे फैले हुआ था जैसे कि क़यामत आ गयी है और संसार को लील जाएगी.  जनवरी महीने से कोरोना संक्रमण की आहटें हमें सुनाई देने लगी थीं लेकिन उन आहटों को अनसुना करके अपने रोज़मर्रा के कामों में  दिल्ली में अपने आप को खपाते रहे; मार्च के महीने में हमलोग गंभीर होने लगे लेकिन महामारी की गंभीरता तब आयी जब सरकारी आदेशों में गंभीर होने का हुक्म जारी हुआ. उस दिन हमें लगा कि विश्व में कोई ऐसा कीटाणु फ़ैल रहा है जो युद्ध से भी भयानक है, उसकी भयावहता के सामने बाढ़, सूखा  जैसी प्राकृतिक आपदाएं कुछ भी नहीं हैं; उसकी तुलना केवल क़यामत से ही की जा सकती है जिसमें जो बच जाए, सो बच जाए.   रेल, सड़क और हवाई आवागमन के साधनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. दिल्ली में बस, टैक्सी, मेट्रो, थ्रीव्हीलर सरीखे सार्वजनिक यातायात साधनों को बंद कर दिया गया. कोरोना कीटाणु से बचने के लिए हम अपने घरों की चारदीवारी में क़ैद हो गए.  शाम होती तो घर में, सुबह होती तो घर में; किताबें, टीवी और लैपटॉप की दुनिया में हम सिमट गए. कभी किसी मित्र का फोन आ जाता, तो आ जाता; लगता कि फोन पर बात सुन लेने से ही कीटाणु हमारे फेफडों को संक्रमित कर देगा.  उन स्थितियों से ऊबे तो नहीं थे लेकिन अमेरिका जाने का मन बन गया था एक क़यामत से निकल कर दूसरे क़यामत की ओर; वायुयात्रा के लिए वायुयान की टिकट चाहिए और वायुमार्ग खुला नहीं था इसलिए अनिश्चितता बनी हुई थी लिहाजा किसी मित्र को बता नहीं पाया कि अमेरिका जा रहा हूँ | प्रिय कवि और आत्मीय मित्र मंगलेश डबराल को भी नहीं बता पाया क्योंकि मैं जनता था कि ऐसे समय में मेरा अमेरिका जाना उन्हें पसंद नहीं आता और वे अपने आत्मीय तर्कों और तरीक़ों  से  मुझे अमेरिका जाने से रोक देते. खैर, उनको बिना बताए अमेरिका चला गया. अमेरिका के सन फ्रांसिस्को से उनको फोन मिलाता रहा, उन्होंने फोन नहीं उठाया तो मुझे लगा कि वे नाराज़ होंगे लेकिन मेरे फोन के जवाब में उनका फोन आता रहा तो मैं नहीं उठा पाया.  दरअसल जब मैं फोन करता उनके सोने का समय हो जाता और जब वे फोन करते तो मैं  सोया रहता. हम सोये रह गए, बात नहीं हो पायी.  फेसबुक पर उनकी एक टिप्पणी पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया था :  उन्होंने लिखा था,            
"हिंदी में जो भीषण ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, घृणा और शत्रुता व्याप्त है उतनी शायद किसी और भाषा में नहीं है लेकिन यह समझना कठिन है कि वह कहाँ से आयी है. अज्ञेय की कविता याद आती है: 'सांप, तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया/ एक बात पूछूं--उत्तर दोगे?/ तब कैसे सीखा डँसना/विष कहाँ पाया?' "  मैंने पाया कि इधर  हिंदी के साहित्यकार बेवजह उनसे जलने लगे थे और उनको परेशान करते थे. उन्हीं परेशान करने वालों के लिए उनकी यह टिप्पणी थी. मंगलेश डबराल को अनमना होते महसूस करते हुए  मुझे रघुवीर सहाय की एक कविता याद आयी, जो यों है:

ईर्ष्या 
रघुवीर सहाय 

कितने लोगों ने मुझे बधाई दी 
उन्हें ईर्ष्या थी  उन्होंने मेरे साधारण कर्म को भी 
ऐसा बताया
जैसे कोई बड़ी बात हो जो उनके जीवन में नहीं हुई 
  और होती तो वह उससे भी साधारण 
                                      होने पर बड़ी बात है 

ये वे लोग हैं जो बूढ़े हो गए पर बड़े नहीं हुए 
और इन्हें ईर्ष्या है उससे 
जो बड़ा हो गया पर बूढ़ा नहीं हुआ 

(1989 में लिखी गयी यह कविता उनके संग्रह एक समय था में संकलित है| यह संग्रह उनके मरणोपरांत संकलित हुआ था | ) 
इस कविता को उद्धृत करने के बाद मंगलेश डबराल को फेसबुक पर ही संबोधित करते हुए मैंने लिखा था कि आप तो उनमें से हैं जो बड़ा हो गया, मंगलेश डबराल को मेरी बात अच्छी लगी थी, उनका मन थोड़ा शांत हुआ. अमेरिका के सिलिकॉन वैली में रहते हुए ही उनके कोरोना से संक्रमित होने की सूचना मिली |  हॉं ! उन्हें कोरोना हुआ। शायद वे अस्पताल समय से नहीं गए। दो साल पहले उनकी बाई पास सर्जरी हुई थी । ठीक थे, अचानक अस्पताल ले ज़ाए  गए । सुधार नहीं होने पर एम्स में भर्ती कराया गया । फेफड़ा पूरी तरह संक्रमित हो चुका था। शरीर ऑक्सीजन सोख  नहीं  रहा था; किडनी काम करना बंद कर दिया । डायलिसिस  के समय दो बार हार्ट अटैक  आया। साँस की प्रक्रिया रूक गई। एम्स के डॉक्टरों की लाख कोशिश के बावजूद वे बचाए नहीं जा सके।यह सब कोरोना की वजह से हुआ। समय बहुत भयानक है। यही खबर दिल्ली से आई | मंगलेश डबराल हिंदी के बड़े कवि हैं ; कवि से भी बड़े हम सब के सहारा थे सुख दुःख का | बहुत दुःख हुआ | हमारा मुख्य गायक चला गया। दरअसल मंगलेश डबराल अपने को हमेशा संगतकार ही मानते रहे हम संगतकारों के साथ, बराबरी और लोकतांत्रिक और मार्क्सवादी स्तर पर। कभी ज़रूरत से अधिक न माँगा, न लिया।सच्चा और पक्का। हम सबके प्रिय कवि हैं मंगलेश डबराल जो कोरोना संक्रमण से संघर्ष करते हुए हमारे बीच से चले गए, हमें अकेला, बेसहारा और तड़पता छोड़कर | व्योमेश शुक्ल ने ठीक ही कहा कि बोलने से भरा हुआ मन थोड़ा हल्का होगा|  लिखावट में उनपर ऑनलाइन कार्यक्रम में हमने खूब बोला तो उनका जाना सहने लायक हुआ |  
'आवाज़ भी एक जगह है' मंगलेश डबराल का बहुचर्चित कविता संग्रह है और संगतकार उनकी प्रसिद्ध कविता| अमेरिका में रहते हुए मैंने महसूस किया कि वहाँ  साहित्यकारों का बड़ा सम्मान है।  वहाँ  रहते हुए ही अमेरिकी कवयित्री लुई ग्लुक को नोबल प्राइज मिला| लुई ग्लुक को आम अमेरिकी भी जानते हैं | माया एंजेलो  अमेरिकी ब्लैक कवयित्री हैं जिनकी 2014 में मृत्यु हो गयी थी, बराक ओबामा के राष्ट्रपति के रूप में शपथ समारोह में उन्हें कविता पाठ के लिए बुलाया गया था| भारतीय अपने साहित्यकारों का आदर नहीं करते | मंगलेश डबराल का जीवन संघर्षों से भरा था.  पैसे के लिए काम की तलाश में कठिन संघर्ष करना पड़ा था | रघुवीर सहाय का जीवन ही कौन सा आसान था.  

सुरक्षित स्त्रियाँ 

संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है लेकिन सच्चा लोकतंत्र है जो अपने नागरिकों की पूरी हिफाज़त करता है; स्त्रियों की सुरक्षा और उनके हक़ के प्रति पूरी तरह ईमानदार. पिछले  चार वर्षों से संयुक्त राज्य अमेरिका आना-जाना हो रहा है; अमेरिका आने के पहले हम, साम्यवादी प्रभाव में उसकी  तीव्र आलोचना ही करते आ रहे हैं; एक लेखक के रूप में अमेरिका कभी मनभावन नहीं लगा क्योंकि पूंजीवाद का खुल्ल्म- खुल्ला खेल यहाँ साफ़-साफ़ दिखता है लेकिन यहाँ कि व्यवस्था आकर्षक लगती है. पूँजी की व्यवस्था की बात मैं नहीं कर रहा हूँ; व्यवस्था जिसे अमेरिका के लोगों ने अपने लिए और अमेरिका आने वाले लोगों के लिए बनायी है; अमेरिकी अपनी संरचनात्मक ,सांस्कृतिक और मानवीय व्यवस्था को सबके साथ साझा करते हैं, बिना किसी भेद भाव के ,मसलन, रंगभेद, जातिभेद, पूंजीभेद, लिंगभेद- यह सब उनके जीवन के हिस्से हैं, उन्होंने अपने ऊपर इन्हें ओढ़ा नहीं है. अमेरिका पूँजीवादी जरूर है लेकिन यहाँ हर विचार के लोगों को सराहा जाता है; पूंजीवाद जरूर है लेकिन यही पूँजीवाद  दुनिया को लोकतंत्र, सर्वधर्मसम्मान, और सामाजिक सुरक्षा का पाठ पढ़ाता है.   संयुक्त राज्य अमेरिका का कैलिफ़ोर्निया राज्य  का सिलिकन वैली इलेक्ट्रॉनिक आंदोलन का जनक है. इंटेल, सिस्को, एप्पल,गूगल , फेसबुक, पेपाल , उबर, नेटफ्लिक्स इत्यादि कंपनियों का जन्म इस सिलिकन वैली में हुआ लेकिन अब वे सब अंतराष्ट्रीय कंपनियां हैं और इनके दफ़्तर भारत में भी वर्षों से खुले हुए हैं. अमेरिका का पूजींवादी और वैज्ञानिक विकास ने अपने समाज को साफ़-सुथरा बनाने में भी रचनात्मक सहयोग किया है. साफ़-सुथरा का मतलब स्वच्छता अभियान तक सीमित नहीं है बल्कि अमेरिकियों की सोच और तहज़ीब को भी सुंदर और मानवीय बनाया है. किसी भी अमरीकी इंसान के शरीर और भाव में किसी का अपमान करने की नीयत दिखाई नहीं देती है. यहाँ के संरचना निर्माण में सौंदर्यबोध दिखाई देता है.  लेकिन सबसे अधिक सराहनीय  मूल्य  जो है वह है स्त्रियों के  प्रति सम्मान की  सोच और दृष्टि.  कैलिफ़ोर्निया के बे-एरिया  और सिलिकन वैली के  बाज़ारों ,     दुकानों , गलियों,  कार्यालयों, सार्वजनिक स्थलों , इत्यादि में लड़कियों और औरतों को बेख़ौफ़ होकर घूमते देखना एक सुखद अनुभव सा लगता है. कोई पुरुष किसी स्त्री को देख कर फबती कसने के बारे में सोचता ही नहीं है. उनके आने-जाने पर समय की पाबंदी भी नहीं है. किसी स्त्री को कोई रास्ते में रोककर कोई (पुलिस भी नहीं ) यह नहीं पूछ सकता कि इतनी रात गए वह कहाँ और कैसे अकेली या किसी के साथ घर से बाहर है. स्त्रियों को लोलुप निगाहों से नहीं देखता है.   यह होता है समाज जो अपनी स्त्रियों को एक  बेख़ौफ़ दुनिया और बेवजह की  पाबंदियों से मुक्त करता है. कानून यहाँ भी है लेकिन यहाँ कानून का   ख़ौफ़ नहीं है ; अमेरिकी नागरिक स्वेच्छा से कानून का पालन करते हैं. लड़कियाँ यहाँ सुरक्षित हैं इसका एक पोख्ता प्रमाण है  कि विश्व भर से उच्च शिक्षा के लिए वे यहाँ के विश्वविद्यालयों में आती हैं; अकेले रहती हैं; पढाई करती हैं; नौकरी करती हैं;घर बसाती हैं या अपने वतन सकुशल लौट जाती हैं. सन फ्रांसिसको के गोल्डन गेट पर प्रशांत महासागर को देखते हुए अपना वतन और अपनी दिल्ली याद आते हैं. स्त्री-मुक्ति पर केवल बहसें होती हैं लेकिन हम एक ख़ौफ़विहीन समय, समाज, सड़क, गली, बाज़ार, दुकान, विश्वविद्यालय, यहाँ तक कि एक घर तक नहीं दे पाते हैं. एक समय रहा है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर संस्कृति पर फ़ख्र होता था जहाँ छात्राएं अपने आपको महफूज़ महसूस करती थीं. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्राओं पर लगी बंदिशों के ख़िलाफ़ उनका आंदोलन याद आता है. घर से बेटियां और बहनें  निकलती हैं तो उनके आने तक सासें रुकी रहती हैं. हिंदुस्तान का एक भी शहर या गांव स्त्रियों के लिए महफ़ूज़ नहीं लगता. कब कौन शोहदा फ़बती कस कर निकल जाएगा, कह नहीं सकते. सरकारी दफ़्तरों का तो और बुरा हाल है; उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की धज्जियाँ उड़ती ही रहती हैं. भारतीय संघ और राज्य सरकारों के सरकारी अफ़सरों का अमेरिका आना-जाना लगा ही रहता है लेकिन इस मामले में हम अमेरिका से सीखना ही नहीं चाहते।
सन फ्रांसिसको के  गोल्डन गेट पर खड़े खड़े विष्णु खरे की कई कविताएं याद आने लगती हैं जो अपने भारतीय समाज में लड़कियों की स्थितियों पर उन्होंने लिखी हैं. 'लड़कियों के बाप' उनकी कविता है जिसमें लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित पिताओं की दास्तान है. लड़कियों की सुरक्षा का मतलब यह भी है कि उनको कोई अश्लील निगाह से नहीं देखे, उन पर कोई गंदी फ़बतियाँ नहीं कसे, कि आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाकों से हमला न करे . बड़े बाबुओं और अफ़सरों के मज़ाकों से लेकर साइकिल-स्टैंडवालों की अश्लील निग़ाहों से बचाने की कोशिश करते हुए बाप अधमरे ही रहते हैं. लड़कियों की भ्रूण-हत्याएँ, ऑनर -कीलिंग, आज़ाद चेतनाओं की निंदा और हत्या  , पुलिस बर्बरता, बलात्कार, दहेज़-प्रताड़ना, कम शिक्षा या अशिक्षा ,कहाँ तक गिनाएं. 'घर' कविता की मार्मिकता को महसूस करते ही कलेजा फटने लगता है. इसमें एक स्त्री है जो घर-घर जाकर दिन भर बर्तन मांजने का काम करती है और अपने साथ लाए अपने बच्चों को नज़दीक के पार्क में एक पेड़  के नीचे छोड़ जाती है.' एक पांच बरस की लड़की और तीन बरस का लड़का '  दिन भर क्या करते हैं इस कविता को पढ़ कर देखिए. "किसी को परेशान नहीं करते कुछ माँगते नहीं / कुछ मिल जाता है तो मा के आने तक सहेजकर रखते हैं " ऐसे तमाम कामगार माओं और उनके मासूम बच्चों के बारे में सोचिए. कामगार माओं को जिनके काम की कोई सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है सुबह से शाम तक कितनी अश्लील फ़ब्तियों को सुनना पड़ता होगा; कितनी अश्लील निगाहों की चुभन बर्दाश्त करनी पड़ती होगी. अमेरिकी समाज अपने देश की स्त्रियों का सम्मान करता है, उनके श्रम का सम्मान करता है.  यही सच है  पांच ट्रिलियन वाली अर्थ-व्यवस्था के  सपने देखने के लिए आतुर भारतीय समाज का जो अपनी स्त्रियों की भावनाओं को उचित परिप्रेक्ष्य में देख नहीं पाता है.स्त्रियों की  बदहाली और दुर्दशा  जो भारतीय समाज के लिए एक ऐसा अभिशाप है जिससे सबसे पहले उबरने की जरुरत है.  विष्णु खरे अपने समाज की  रुग्ण मानसिकता को कितनी बारीकी से देखते-समझते हैं .  

सराहनीय चुनावी प्रक्रिया 

स्त्रियां तो अमेरिकी समाज में  महफूज है ही लोकतंत्र की जड़ें भी मज़बूत हैं. इस बार अमेरिका के प्रेजिडेंट के चुनाव के दरम्यान अमेरिका में ही था और गौर से और क़रीब से अमेरिकी लोकतंत्र को देखा. 3 नवंबर को चुनाव हुआ था लेकिन अमेरिका के कई राज्यों ने कोरोना संक्रमण की गंभीरता को देखते हुए पोस्टल बैलट का प्रावधान सबके लिए कर दिया था.  इसलिए पोस्टल बैलट की प्रक्रिया दो महीने पहले ही शुरू हो गयी थी. उस प्रक्रिया के कई स्टेज थे, मसलन, वोटर को पोस्टल बैलट के लिए पंजीकरण करना, राज्य सरकार द्वारा वोटर को पोस्टल   बैलट पोस्ट से भेजना और पोस्टल बैलट भरकर सीलबंद लिफाफे में राज्य चुनाव आयोग को पोस्ट से ही भेजना. सिलिकन वैली के कई बाज़ारों में हमने देखा बैलट पेपर बॉक्स लगे थे जहाँ वोटर बैलट पेपर डाल सकते थे. बैलट बॉक्सों पर चुनाव की सूचना कई भारतीय भाषाओँ में लिखे हुए थे, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, तेलुगु इत्यादि.  सिलिकन वैली भारतीयों से भरा हुआ है उनमें से ज्यादातर इंडियन अमेरिकन हैं और बाकी अमेरिकी नागरिकता के इंतज़ार में हैं. जीवन सबका खुशहाल है. नए राष्ट्रपति से उम्मीद लगाए हैं कि नागरिकता देने की प्रक्रिया तेज होगी जिसे ट्रंप  प्रशासन  ने धीमा कर दिया था.       
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बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

 भवानीपुर में सांप्रदायिक और तानाशाही प्रवृत्तियों की  हार

-मिथिलेश श्रीवास्तव  

ममता बनर्जी की जीत 
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की भवानीपुर  विधानसभा सीट से जीत  सिर्फ उनकी जीत नहीं है बल्कि सांप्रदायिक और तानाशाही प्रवृत्तियों की करारी हार है. इस जीत पर ममता बनर्जी को बधाई देते हुए तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र  कडिगम की नेता और सांसद कनिमोझी ने अपने ट्वीटर हैंडल पर कहा है उनकी यह जीत धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए उम्मीद की जीत है.  समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने लिखा है," ये जो ‘ममता दीदी जी’ की जीत है वही तो ‘सत्यमेव जयते’ की रीत है." मार्च महीने में ममता बनर्जी नंदीग्राम विधानसभा से विधानसभा का चुनाव  हार गयी थीं. उन्होंने अपनी हार के पीछे किसी साजिश की बात कही थी. अदालत भी गयी हैं. लेकिन भवानीपुर से जीत हासिल करके उन्होंने तृणमूल कांग्रेस को राजनीतिक संकट से उबार लिया है. निसंदेह इस समय धर्मनिरपेक्ष ताकतों के जीतने की समय की जरूरत है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ममता बनर्जी के खिलाफ भवानीपुर में अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था. ये सब धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के एकजुट होने के संकेत हैं. एकजुटता असंभव होनी नहीं है. कई बार एकजुटता आयी है और उसकी विजय भी हुई है.   संविधान और लोकतंत्र की कई पहेलियां समझ में आने के बावजूद अबूझ बनी रहती हैं. संविधान के प्रावधानों में यह साफ़ तौर पर लिखा है कि किसी भी राज्य के राज्यपाल किसी को भी मुख्यमंत्री नियुक्त कर सकता है भले ही वह विधानमंडल का सदस्य नहीं है  लेकिन उसे मुख्यमंत्री नियुक्त होने की तारीख से छह महीने के भीतर विधानमंडल का सदस्य बनना होगा और यदि ऐसा नहीं होता तो उसे मुख्यमंत्री के पद से हटना होगा. विधानमंडल का मतलब विधानसभा और विधान परिषद है. कुछ राज्यों का विधानमंडल एकसभाई है और कुछ राज्यों में द्विसभाई है. विधानसभाओं और विधानपरिषदों के लिए चुनाव भारतीय चुनाव आयोग करता है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा का चुनाव इसी साल मार्च  महीने में  हुआ था जिसमें तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत हुई थी लेकिन उसकी नेता ममता बनर्जी हार गईं . लेकिन वही मुख्यमंत्री नियुक्त हुईं. उनके सामने विधानमंडल का सदस्य छह महीने के भीतर बनने की चुनौती थी. अगर ऐसा नहीं होता तो तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व के सामने भारी संकट पैदा होता. पश्चिम बंगाल का विधानमंडल  एकसभाई है अर्थात सिर्फ विधानसभा है तो यह जरुरी था कि वहां विधानसभा की खाली सीटों पर उपचुनाव हो और ममता बनर्जी चुनाव लड़ें और जीतें. विधानसभा के चुनाव के तत्काल बाद पश्चिम बंगाल की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास किया कि वहां विधानपरिषद का सृजन हो.  विधानपरिषद के सृजन का अधिकार भारतीय संसद का है जो संविधान में संशोधन करके विधानपरिषद का सृजन करेगा. उस प्रस्ताव के पीछे के मकसद के बारे में  यही कहा गया था कि ममता बनर्जी विधानपरिषद बनने के बाद उसकी सदस्य बन जाएंगी . लेकिन अभी तक पश्चिम बंगाल के विधानसभा के उस प्रस्ताव पर केंद्र की भाजपा सरकार ने कोई कार्यवाही की शुरुआत नहीं की है. तो ममता बनर्जी के लिए विधानपरिषद का रास्ता खुला नहीं. भारतीय चुनाव आयोग उपचुनाव की घोषणा में देरी कर रहा था और तृणमूल की घबराहट बढ़ रही थी. ममता बनर्जी दिल्ली आयीं और उसके कुछ दिनों के बाद चुनाव घोषित हुए. तृणमूल का संकट समाप्त होता दिखने लगा. भवानीपुर विधानसभा सीट से ममता बनर्जी  2011 और 2017 में जीत चुकी थीं लेकिन 2021 में उन्होंने विधानसभा सीट बदल लिया था. नंदीग्राम में कुछ सौ वोटों से हार गयीं. भवानीपुर उपचुनाव में उनकी जीत पर  भारतीय जनता पार्टी  के नेता और प्रवक्ता कहने लगे  कि 'ममता बनर्जी पिछले चुनाव में हारने के बाद मुख्यमंत्री कैसे बनीं. ' भारतीय संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में छह महीने के लिए विधानसभा में सदस्य होने की पात्रता रखने वाला कोई भी व्यक्ति मुख्यमंत्री नियुक्त हो सकता है इसमें कोई गैरवाज़िब गैर संवैधानिक मसला नहीं है. ममता बनर्जी पिछले दस वर्षों से पश्चिम बंगाल की  मुख्यमंत्री हैं और मौजूदा विधानसभा में तृणमूल विधायकों का उन्हें पूरा समर्थन है तो वे मुख्यमंत्री बन सकती हैं. बल्कि भारतीय चुनाव आयोग उपचुनावों में देरी करता तो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार पर इल्जाम लगता कि ममता बनर्जी को परेशान करने की कोशिश हो रही है. इन उपचुनावों के कारण ममता बनर्जी का संवैधानिक संकट टल गया और भारतीय जनता पार्टी की छवि धूमिल होने से बच गयी. लेकिन यह भी सच है कि ऐसा संकट पहली बार नहीं आया था. हाल में यह संकट उत्तराखंड राज्य में देखा गया जब लोकसभा के सांसद तीरथ सिंह रावत को 10 मार्च,  2021 को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया. उन्होंने संसद से इस्तीफ़ा नहीं दिया था. संवैधानिक रूप से छह महीने के लिए वे मुख्यमंत्री रह सकते थे, सो 116 दिन रहे.  विधानमंडल का सदस्य उन्हें होना पड़ता लेकिन उसकी नौबत नहीं आयी. उसके पहले ही उनको मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया  और त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया जो विधानसभा के विधायक हैं. आज़ादी के बाद हुए चुनावों में मोरारजी देसाई विधानसभा का चुनाव हार गए लेकिन उनको महाराष्ट्र (तब महा मुंबई) का मुख्यमंत्री बनाया गया. संविधान के दायरे में रहकर की गयी राजनीति शायद नैतिक सवालों को जन्म नहीं देती है. किन्तु जनहित में होगा राजनीति के हर कार्यवाही में नैतिकता को बहाल करना. एक प्रश्न ममता बनर्जी से हम पूछ ही सकते हैं कि उनके बाद तृणमूल का नेतृत्व कौन करेगा.  यह सवाल कांग्रेस से भी पूछा जा रहा है जहां संकट अभी बड़ा  है.     

कांग्रेस का संकट 

पंजाब में मुख्यमंत्री बदल जाने से कांग्रेस का संकट ख़त्म नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बयान देना पड़ा  है कि उस प्रान्त में मुख्यमंत्री बदलने की अटकलें बेबुनियाद हैं हालांकि वे दिल्ली कई बार बुलाये जा चुके हैं और सांसद और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी छत्तीसगढ़ जाने वाले हैं. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का यह कहना कि छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ है सुनने में अच्छा लग रहा है लेकिन कपिल  सिब्बल की वह बात भी याद करने की जरुरत है कि अध्यक्ष की अनुपस्थिति में कौन फैसले ले रहा  उनको मालूम नहीं है. 23 समूह कांग्रेसियों का एक समूह है जो कहता है कि कांग्रेस को सुधारने की जरूरत है. जी -23  का मतलब  कपिल सिब्बल, ग़ुलाम  नबी आज़ाद, शशि थरूर सरीखे 23 कांग्रेसी हैं जो समय समय पर सोनिया गांधी को कांग्रेस की दशा पर आगाह करते रहते हैं. उनकी मांग है कि कांग्रेस के लिए निर्वाचित अध्यक्ष, कांग्रेस वर्किंग समिति का गठन, केंद्रीय निर्वाचन समिति और कांग्रेस संसदीय बोर्ड का पुनर्गठन. ये सभी संस्थाएं और समितियां पार्टी स्तर की हैं जो इसलिए जरुरी हैं कि पार्टी को अनुशासित और समयाकुल बनाए रखा जा सके और पार्टी की निर्णय क्षमता में बरक़त हो. सोनिया गांधी तदर्थ अध्यक्ष हैं और एक स्थायी अध्यक्ष का चुना जाना सालों से टलता रहा है.  2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की पराजय की जिम्मेवारी लेते हुए राहुल गांधी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था यह कहते हुए कि उस लड़ाई को उन्होंने अकेले लड़ा. मध्य प्रदेश में कमलनाथ बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया के संघर्ष में कांग्रेस से सिंधिया का पलायन हुआ और कमलनाथ की मध्य प्रदेश सरकार गिर गयी. कांग्रेस के हाथ से मध्यप्रदेश निकल गया. सचिन पायलट बनाम राजस्थान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच के झगड़े में कांग्रेस की बहुत दिनों तक बदनामी होती रही. शांति तो दिख रही है लेकिन वह ज्वालामुखी पर बैठने के जैसे है. तभी तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को कहना पड़ा है कि उनकी सरकार पांच साल पूरा करेगी और वे 15 से 20 साल तक राजनीति में सक्रिय रहेंगे.  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इस वक्तव्य में राजनीतिक जिद्द दिखायी दे रही है हालांकि उनके इस वक्तव्य पर सचिन पायलट की प्रतिक्रिया आयी नहीं है. कांग्रेस का आलाकमान क्या सोचता है, उसकी भी ख़बर नहीं है.  एक बात सामने आ रही है कि कांग्रेस का आलाकमान कांग्रेस को युवा हाथों में देने के लिए बेचैन है. कन्हैया कुमार का कांग्रेस में शामिल होना बड़ी खबर है क्योंकि उनकी वक्तृत्व शक्ति तीव्र है और राजनीतिक हमले भी धारदार हैं लेकिन यह तभी संभव है जब वे कांग्रेस की भीतरी राजनीति से बचाये जा सकें. बुजुर्ग कांग्रेसियों और युवा नेताओं को साथ मिल कर काम करना होगा तभी कांग्रेस संभल पाएगी और प्रतिपक्ष मजबूत होगा. अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं; तो उसको भी कांग्रेस को ध्यान में रखना होगा.  

जन गण मन का लोकधुन  
राजनीति की पेचीदा स्थितियों के बीच मेघालय की एक खबर शुकून देती है.  मेघालय  विधानसभा के अध्यक्ष ने स्थानीय संगीत और वाद्यों के प्रयोग से राष्ट्रगान का नया संगीत बनवाया है जो सुनने में मीठा और अलग अंदाज़ का  है. मेघालय के 60 सदस्यीय विधानसभा के पिछले सत्र के  दौरान इस साल 10 सितंबर को विधानसभा के भीतर इसे बजाया  गया. सत्र की शुरुआत नए धुन में राष्ट्रगान के रिकार्डेड गायन से हुआ. मेघालय के परंपरागत खासी  सितार कादुई-तारा की झंकार 'जन गण मन' के गायन के पहले गूंज उठता है. राष्ट्रगान का यह धुन मेघालय विधानसभा के वेबसाइट पर उपलब्ध है. यूट्यूब पर भी लोगों ने साझा किया है. अब तक जो हमने राष्ट्रगान का  धुन सुना है उससे कहीं बहुत अधिक मीठा और सुरीला धुन है.  शायद देश का पहला राष्ट्रगान का धुन है जिसमें विशिष्ट आदिवासी संगीत और वाद्यों का उपयोग किया गया है. आदिवासी स्पर्श के साथ.   मेघालय राज्य अपनी स्थापना का स्वर्ण जयंती मना  रहा है. इस अवसर के लिए राष्ट्रगान का यह लोकधुन बनवाया गया है.  राष्ट्रगान वही है, लोकधुन भी वही है लेकिन ध्वनि अलग है. राज्य विधानसभा के अध्यक्ष श्री लिंगदोह के अनुसार शायद किसी और राज्य ने इस तरह का धुन नहीं बनवाया होगा. शायद यह जोखिम भरा प्रयोग था लेकिन असाधारण रूप से सफल हुआ है. सीईएमलीह राष्ट्रगान के नए धुन के संगीत निर्देशक हैं.     उन्होंने मेघालय के तीनों ही क्षेत्रों के , खासी हिल्स, जैन्तिया हिल्स और गारो हिल्स, गायकों को राष्ट्रगान के समूह गान में शामिल किया है. जो गायक हैं वे इन्हीं क्षेत्रों से हैं लेकिन उनकी हिंदी अच्छी है. गायन में उस माधुर्य को महसूस कर सकते हैं जिसमें बोल हिंदी के है ध्वनियां हिंदी की हैं लेकिन उच्चारण पर मेघालय की भाषाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव है जिसकी वजह से धुन और समूह गायन की मिठास बढ़ जाती है, राष्ट्रगान के समूह गायन में 10 गायक हैं. राष्ट्रगीत गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने बांग्ला में  1911   में लिखा था.   संविधान सभा ने इस गीत को राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी, 1950  को अपनाया गया. मूल रूप से यह गीत बांग्ला भाषा में  लिखा गया था. लेकिन इसके हिंदी स्वरूप को  राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया. 

 लखीमपुर खीरी  का नरसंहार 

-मिथिलेश श्रीवास्तव 
भारतीय जनता पार्टी के केंद्र सरकार में राज्य गृहमंत्री अजय कुमार मिश्र के बेटे आशीष मिश्र को फ़िलहाल गिरफ़्तार कर लिया गया है. गिरफ़तारी के पीछे देश की विपक्षी दलों की एकजुट आवाज़ और विरोध और संवेदनशील मीडिया की भूमिका अहम रही है. केंद्र और राज्य सरकारें और उत्तर प्रदेश की पुलिस की विनम्र भूमिका काफी संदेहास्पद रही है. जागरूक आंदोलनकारियों की वीडियो साक्ष्यों की वजह से यह मामला जनता के संज्ञान में आयी. सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और उत्तर प्रदेश की सरकार को फटकार लगायी, रिपोर्ट मांगा और इस केस की छानबीन के लिए किसी तीसरी एजेंसी को सौंपने की बात कही. आशीष मिश्र की गिरफ़तारी के पीछे इतने लोग लगे हुए थे. कांग्रेस के कई नेता लखीमपुर खीरी गए. तृणमूल कांग्रेस के नेता गए. वरुण गांधी ने आवाज़ उठायी. लोकतंत्र में वर्चस्ववादी राजनीतिक व्यवस्था में पुलिस भी लाचार हो जाती है. 
    
सबने देखा लखीमपुर खीरी में आंदोलन कर  रहे किसानों को तेज-रफ़्तार गाड़ी से कुचलने की दुर्घटना. यह दुर्घटना  किसने करायी, इसके बारे में साफ़-साफ़ न तो उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार अथवा पुलिस ने कुछ कहा है. भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने भी कुछ नहीं कहा है . जो सत्ता में हैं और जिनका राज्य की पुलिस और प्रशासनिक तंत्र पर शिकंजा है वे निश्चिंत और निष्क्रिय  बैठे हैं. 42 सेकेंड  का एक वीडियो  दृश्य मीडिया चैनलों पर कई दिनों तक लगातार दिखाया गया है. उस वीडियो को देख कर यह लगता है कि वह हादसा नहीं था बल्कि निर्मम और नृशंस हत्या थी.  यह हत्या किसने करवाई? तर्क एक: भारतीय  राष्ट्रीय   कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, और दूसरी प्रतिपक्षी राजनीतिक पार्टियां कृषि कानूनों के  खिलाफ हैं  और किसानों के साथ हैं तो ये गाड़ियां  उनकी नहीं हो सकतीं; तर्क दो: किसान आंदोलन से किसकी प्रतिष्ठा दाव पर है; तर्क तीन: उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव है तो किस पार्टी को चुनावी नुकसान होने की आशंका है; तर्क पांच: किस राज्य सरकार के अधिकारी ने किसानों के सर तोड़ देने का आदेश पुलिस फोर्स को दिया था;तर्क पांच: किस राजनीतिक पार्टी के मंत्री ने किसानों को सबक सिखाने और लखीमपुर खीरी छोड़ने पर मज़बूर कर देने की धमकी दी.लखीमपुर खीरी की नृशंषता की जितनी भी  निंदा   किया जाए, कम होगा. इन सारे तर्कों से एक निष्कर्ष निकलता है कि इसके पीछे हरियाणा, उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार के नेताओं के बयानबाजियों में इन हत्याओं के बीज हैं जो डेढ़ साल से चल रहे किसान आंदोलन से परेशान हैं. बातचीत का रास्ता बंद है; शर्तें एकदूसरे को मान्य नहीं हैं और मान्य हों भी क्यों. खेती-किसानी को बाज़ार आधारित बनाने की सारी  कोशिशों ने किसानों और किसानी पर आधारित लोगों की हालत को ख़राब ही किया है. किसान आंदोलन पर लगातार हमले हो रहे हैं तो आंदोलन के नेताओं को चाहिए कि वे अपना ख़बरी दस्ता का गठन करें जो आंदोलन स्थल के पांच किलोमीटर तक फैला रहे और ऐसे हमलावरों के आने की सूचना देते रहें. जैसे जैसे उत्तर प्रदेश का चुनाव नज़दीक आता जाएगा किसान आंदोलन को बदनाम करने की साजिशें बढती जाएंगी  और हमले भी. आज़ाद हिंदुस्तान का यह तीसरा बड़ा आंदोलन है, कुशाग्र बुद्धि वाले युवाओं का नक्सलबाड़ी और जेपी के  छात्र आंदोलन  के बाद. इस आंदोलन का विस्तार भी होना चाहिए. कृषि कानूनों की वापसी के मुद्दे के साथ साथ कृषि की बाजार पर निर्भरता कैसे कम हो और कारपोरेट के उत्पादन पर निर्भरता कम हो.    

जनता की भूमिका 
 लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता होती है जो अंततः तानशाह सत्तावानों को सबक सिखाती है. अपने जीवन काल में ही हमने जनता को कई बार राजनीतिक दलों  को सबक सिखाते  और सज़ा देते देखा है. आपातकाल के दौरान उत्तर भारत के लोग अधिक परेशान  हुए थे  तो आपातकाल के बाद हुए  पहले चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसकी नेता को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. 1977 में ये चुनाव हुए थे जिसमें जनता पार्टी को 302 सीटें मिलीं; कांग्रेस को 164 सीटें मिलीं; बाकी सीटें अन्य दलों को मिलीं. जनता पार्टी में कई दलों का विलय हुआ था.उन विलय हुए दलों में से एक जनसंघ भी था. कांग्रेस की अधिकांश सीटें दक्षिण के राज्यों में मिली थीं. उत्तर भारत में आपातकाल के दौरान ज्यादतियां अधिक हुई थीं; नेताओं की गिरफ्तारियां ज्यादा हुई थीं. बावजूद कि कांग्रेस के समय में राजाओं के प्रिवी पर्स बंद कर दिया गया था, बैंकों का राष्ट्रीयकरण  हुआ था, बांग्लादेश का सृजन हुआ था, सिक्किम भारत का अभिन्न अंग बना लेकिन जनता ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी को अपना मानने से इंकार कर दिया. लोकसभा की 302  सीटें  जीतकर  मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. उस सरकार को पांच साल तक चलना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जनता पार्टी के नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा पार्टी से भी बड़ी हो गयी थी और जनसंघ और आरएसएस और जनता पार्टी के बीच दोहरी सदस्यता को लेकर भी सवाल उठे. नतीजन जनता पार्टी कमजोर होने लगी. चुनाव के बाद सरकार बदली और जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन वह सरकार आपसी खिंच तान में लगी रही तो जनता ने जनता पार्टी और उसके नेताओं को सबक सिखाया और इंदिरा गांधी को वापस सत्ता में ले आयी. 1980 में सातवीं लोकसभा के लिए  चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की भारी जीत हुई. लोकसभा में उसे 377 सीटें मिलीं, जनता पार्टी को 17 सीटें, नवनिर्मित भारतीय जनता पार्टी को 13  सीटें मिलीं. कांग्रेस सत्ता में आयी और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी.  1996 के अप्रैल और मई महीनों में 11 वें लोकसभा का आम चुनाव हुआ. ग्यारहवें लोकसभा (15/05/1996-04/12/1997) में  चुनाव परिणाम जब आए तो पता चला कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है हालांकि 163 सीटें जीत   कर भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और उसे सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन बहुमत साबित करने के पहले ही अटल बिहारी  वाजपेयी को प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा. कांग्रेस को 140 सीटें मिलीं. अटल बिहारी वाजपेयी 13  दिन के लिए प्रधान मंत्री रहे. वाजपेयी जी की सरकार गिर जाने बाद   नेशनल फ्रंट की स्थापना की गयी जिसकी सरकार एच डी देव गौड़ा के नेतृत्व में चली. 1997 में इंद्र कुमार  गुजराल  के नेतृत्व में सरकार बनी. लेकिन बहुमत के अभाव में कोई भी प्रधान मंत्री स्थिर सरकार देने में असफल रहे इसलिए 1998 में लोकसभा के फिर से चुनाव हुए. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें मिली। जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं। सीपीएम ने 32 सीटें जीती और सीपीआई के खाते में सिर्फ 9 सीटें आई। समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और बसपा को 5 लोकसभा सीटें मिली। क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं। भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई। एआईएडीएमके ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और देश फिर से एक बार मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ। 1996 में सरकार की अस्थिरता शुरू हुई तो कई प्रधानमंत्री बने. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पहले  टर्म में 13 दिन और दूसरे टर्म में 13  महीने रहे थे. अटल जी भले ही सॉफ्ट हिंदुत्व के पोषक थे लेकिन भाजपा  और उसकी सहयोगी संस्थाएं हिंदुत्व के नाम पर उपद्रव मचाती रही हैं. राजनीतिक अस्थिरता का सबसे ज्यादा फायदा इन्हीं प्रवृत्तियों को मिला.  अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सुकोमल और कवि ह्रदय  प्रधानमंत्री को तीसरी बार में बहुमत की मिलीजुली  सरकार बनाने का मौका मिला था. पांच साल में मलिन होती इंडिया को इंडिया शाइनिंग जैसे नारे देने वाले भाजपा नेताओं के हाथ से सत्ता निकल गयी. यह तो जनता ने ही किया. 2004 -2014 के बीच 10 साल तक कांग्रेस की सरकार रही और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री  रहे.  कांग्रेस के दस वर्षों के  शासन में  घोटालों का ऐसा बाजार गर्म हुआ कि भाजपा 2014 में सत्ता  में आ गयी. जनता जब खड़ी होती है तो क्षमा नहीं दंड देती है, इसे याद रखने की दरकार है  यही लकतंत्र की ख़ासियत है. आप चाहे जितना भाषण दें, काम नहीं आता. आपके जुमले काम नहीं आते; आपके ज़ुल्म काम नहीं आते; आपके बड़ बोले नेता काम नहीं आते.  विपक्षी नेता ठीक ही कहते हैं कि किसानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. 

लखीमपुर खीरी का जन समुदाय 
2011 की जनगणना के अनुसार  लखीमपुर खीरी हिन्दू बहुलता वाला ज़िला  है लेकिन दूसरे संप्रदाय के लोग भी रहते हैं. 76. 55 % हिन्दू हैं, 20% मुसलमान हैं, 2. 35 % सिख हैं. 88.54% लोग गांवों में रहते हैं तो जाहिर है लखीमपुर खीरी ज़िले के लोग कृषि पर निर्भर करते हैं. कृषि प्रधान देश में कृषि प्रधान ज़िले में कृषि आधारित आंदोलन ज़िले के लिए महत्वपूर्ण है. ज़मीन की रक्षा करना किसानों का परम दायित्व है. गांवों को उजाड़ कर कृषि को बर्बाद कर देश को मज़बूत नहीं किया जा सकता है. शायद सब को यह मालूम है कि मास उत्पादन के नाम पर कृषि आधारित ग्रामीण उद्योगों और व्यवसाय को पिछले पचास वर्षों में बर्बाद कर दिया गया. बढ़ईगिरी, लुहारी, मल्लाही, घोंसारी, हरवाही, मवेशीपालन आज सारा कुछ बर्बाद हो गया है. ग्रामीण दांत धोने के लिए नीम का दातुन नहीं, कॉरपोरेट घराने  के टूथपेस्ट इस्तेमाल करते हैं. गोबर और पारंपरिक बीज की जगह बाजार से खाद और बीज खरीद रहे हैं और क़र्ज़ में डूब रहे हैं. ऑर्गेनिक खेती का चलन अब आ रहा है वह क्या है पुरानी खेती की ही वापसी है, नए नाम के साथ. गाँव  का विकास गांव में उपलब्ध संसाधनों के विकास से ही होगा इसके लिए जरूरी है कि किसान अपनी खेती के लिए चिंता रहित रहें और परस्पर रूप से निर्भर रहें. खेती और खेती पर किसी तरह का आक्रमण किसानों को सहन नहीं हो सकता तो किसान आंदोलन वाज़िब है. किसान आंदोलन की तुलना महात्मा गांधी  के चंपारण आंदोलन से किया जा सकता है जहाँ निलहों के आतंक और मुनाफाखोरी का विरोध हुआ था.     

लखीमपुर खीरी का व्यवसाय 
हस्तनिर्मित शिल्प उत्पादन ज़िले के लोगों के लिए जीविका का साधन है. जिले के थारू जनजाति के लोग प्रमुख रूप से इस काम में हैं. इस शिल्प का  निर्यात दुधवा नेशनल पार्क, प्रदेश के विभिन्न जिलों एवं राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है. यह शिल्प का एक प्रमुख पारंपरिक सेक्टर है एवं हस्त एवं कौशल से बने उत्पादों से संबंधित रचनात्मक एवं डिजाइन गतिविधियों पर क्रियान्वित होता है, जिसमे टेक्सटाइल, ठोस सामग्री, पेपर, प्लांट फाइबर आदि के कार्य सम्मिलित है. लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश का एक जिला है. इस जिले की सीमाएं नेपाल से जुड़ी हुई हैं. लखीमपुर खीरी में देश का सबसे प्रख्यात  दुधवा नेशनल पार्क स्थापित है, जो पर्यटन के दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश के लिए काफी महत्व रखता है. यह उत्तर प्रदेश का एक मात्र नेशनल पार्क है. यह पार्क विभिन्न प्रकार की दुर्लभ एवं लुप्तप्राय प्रजातियों जैसे - बाघ, तेंदुआ, स्वैम्प डियर, आदि के लिए एक घर है। तराई क्षेत्र होने के कारण यहां पर बड़े पैमाने पर हरियाली और कई नदियां हैं. लखीमपुर खीरी में गुड़ का उत्पादन बहुत पुराने समय से किया जा रहा है. जनपद में उत्पादित गुड़ खांडसारी की मांग की आपूर्ति स्थानीय प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर अन्य प्रदेशों में भी की जाती है. जनपद में औद्योगिक दृष्टिकोण से गन्ना आधारित इकाइयां  हैं.  गुड़ उद्योग की इकाई में रोजगार की संभावनाएं  हैं. एक इकाई में परोक्ष और अपरोक्ष रूप से कुल लगभग 20 से 25 व्यक्ति को रोजगार मिलता, जो अन्य औद्योगिक इकाइयों की अपेक्षा काफी अधिक है.  लखीमपुर खीरी का बना गुड़ आज भी देश के बहुत से भागों में विपणन हेतु भेजा जाता है |

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

 गांधी और भारतीय समकालीन कला का रचनात्मक अंतर्संबंध

-मिथिलेश श्रीवास्तव

1995 से 1919 के बीच के 25 वर्षों में महात्मा गांधी को केंद्र में रखते हुए लगभग चार बड़ी कलाप्रदर्शनियां दिल्ली की कलादीर्घाओं में आयोजित हुई जिसमें 100 से अधिक कलाकारों ने उनके किसी न किसी रूप, संघर्ष, सत्याग्रह, अहिंसा, सत्य , आध्यात्मिकता, धर्म और धर्मनिरपेक्षता को अमूर्तन, रंग संयोजन, आकृतिमूलकता के माध्यम से चित्रित करने के असाध्य प्रयास में शिरकत किया| गांधी कहते थे उनका जीवन ही उनका संदेश है , तो इतने बड़े संदेश को समझना कोई आसान काम नहीं है लेकिन भारतीय कलाकारों ने इसे समझने की कोशिश की | इन कलाकारों में शामिल कलाकारों की तीन सरणियां बनायी जा सकती है| पहली सरणी उन वेटेरन कलाकारों की है जो गांधी के समय में अपना एक सामाजिक मूल्य बना चुके थे और तत्कालीन कला की दुनिया में उनकी अपनी एक पहचान बन चुकी थी और जिनसे कला-दृष्टि को लेकर गांधी से विमर्श भी हुआ था, जैसे की नंदलाल बोस जो सेवाग्राम में गाँधी से मिले थे और कला पर विमर्श भी किया था और कांग्रेस के अधिवेशनों में पंडाल बनाने का काम किया था | दूसरी सरणी उन कलाकारों की है जो बचपन से किशोरावस्था तक गांधी की महिमा सुनते रहे थे और इत्तेफाकन गांधी को कहीं देख भी लिया था, उदाहरणस्वरूप , भवेश सान्याल जो 1947 में लाहौर से दिल्ली बंटवारे के समय एक विस्थापित के रूप में आये थे और उन्होंने गांधी जी को दिल्ली की भंगी बस्ती में देखा था | गांधी जी से उनकी मुलाकात नहीं हुई थी लेकिन भंगी बस्ती में गाँधी जी कामकाज करते देखा करते थे और चुपचाप उनका रेखाचित्र बनाया करते थे | वे रेखाचित्र आज भी उपलब्ध है | तीसरी सरणी उन कलाकारों का है जो आज़ादी के आस-पास या उसके बाद जन्मे और उनके ज़ेहन में महात्मा गांधी के स्वरुप मौजूद हैं | इस लेख में जिस पहली कला-प्रदर्शनी का जिक्र किया गया है वह 26 सितम्बर - 21 अक्टूबर, 1995 में दिल्ली के मंडी हाउस में स्थित एलटीजी कलादीर्घा में लगायी गई| उस साल दो अक्टूबर, 1915 को महात्मा गांधी का 125 वां जन्मदिन था | मालूम ही है कि उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था | दूसरी कला-प्रदर्शनी जिसका हम जिक्र करेंगे पटना के कला संग्रहालय में आयोजि की गयी थी 2017 में जब महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के 100 साल पुरे हुए थे | प्रदर्शनी का आयोजन कला संग्रहालय के सहयोग से प्रेग्रेंसिव आर्ट गैलरी ने किया था | महात्मा गांधी पर तीसरी कला-प्रदर्शनी उनके 150 वें वर्षगांठ या जन्म -वर्ष प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट गैलरी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत कला भवन के सहयोग से वाराणसी में आयोजित किया था | इसी मौके पर केंद्रीय ललित कला अकादमी ने रविंद्र भवन में एक कला-प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसमें प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी का गांधी पर आर्ट कलेक्शन को भी शामिल कर लिया गया था | इस मौके पर छापे गए कैटेलॉग के फोरवर्ड में अकेडमी के अध्यक्ष उत्तम पाचरणे ने अपने आर्ट कलेक्शन देकर अकादमी का सहयोग करने के लिए प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के मालिक आर एन सिंह का धन्यवाद किया है | गांधी के 150 वे जन्म-वर्ष को मोदी सरकार ने बड़े धूमधाम से मनाया था तो जाहिर है और भी गांधी-केंद्रित कला-प्रदर्शनियां आयोजित की गई होगीं लेकिन हम यहां इन्हीं चार कला-प्रदर्शनियों की पड़ताल करेंगे|
मोहनदास करमचंद गांधी या महात्मा गांधी या महात्मा या बापू या आइंस्टाइन का इस पृथ्वी पर हाड़-मांस का चलने वाला इंसान जो आने वाली पीढ़ियों को अविश्वसनीय लगेगा या विंस्टन चर्चिल के शब्दों में जो ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि से बराबरी के साथ बात करने वाला अधनंगा फ़क़ीर या सत्य का सतत अन्वेषी या अहिंसा का पुजारी या समाजसुधारक या एक अत्यंत धार्मिक पुरुष जो पाखंड और धार्मिक कर्मकांडों से पृथक या निर्भय निडर सत्याग्रही जो सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अपने समूचे देशवासी को अपने रास्ते चलने की प्रेरणा देने वाला या विश्व के विशाल शक्तिशाली साम्राज्य को अपनी आध्यतमिक शक्ति से चुनौती देने वाल गुलाम देश का उद्धार करनेवाला | आखिर वह कौन था जिसके एक आह्वान पर यह देश उसके पीछे-पीछे उमड़ पड़ता था और ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिलने लगती थीं | कानून तोड़ता था, गुनाह कबूलता था, सज़ा की मांग करता था, सज़ा काटता था और फिर कानून तोड़ता था| यह कौन था, कोई करिश्माई ; यह कौन था ; यह एक अत्यत आधुनिक विचार सम्पन आध्यात्मिक ईश्वर का साथ कभी नहीं छोड़ने वाला और लोगों का भरोसेमंद | सांप्रदायिकता के पक्ष में निडरता के साथ खड़ा होने वाला| दुनिया के किसी कोने में हो रहे अन्याय की मुख़ालफ़त करने वाला | भारतीय महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और उनके सामाजिक संघर्ष पर अगाध भरोसा करते थे, करते हैं | गांधी एक तरह से हमारे समकालीन हैं क्योंकि हम विश्वास करते हैं कि वह आदमी इस धरती पर चला था और उनका जीवन हम अपने लिए आदर्श और अनुकरणीय मानते हैं | हम सबसे पहले गांधी के व्यक्तित्व के किस पक्ष से प्रभावित होते है- उनके सत्य के संधान , साहस , अहिंसा और अपने लोगों की फिक्र | इन्हीं सब अवयवों से उनकी आध्यात्मिकता स्वरूप लेती थी और उनको काम करने की प्रेरणा देती थी | महात्मा गांधी अपने जीवन पर पर्दा नहीं डालते थे | उनके दैनिक जीवन की कुछ उपयोगी सामग्रियां ऐसी हैं जो उनके जीवन को प्रतीकात्मकता प्रदान करती हैं| मसलन, आश्रम-जीवन, चरखा , चप्पलें , चश्मा, लाठी , धोती , तीन बंदर, निश्छल और मानवीय हंसी, इत्यादि | गांधी को इन प्रतीकों में तलाशा जा सकता है और इन प्रतीकों के माध्यम से गाँधी के सकल व्यक्तित्व को कैनवास पर उतारा जा सकता है लेकिन गांधी को समग्रता में कला में समाहित करने के लिए एक नयी रेखा एक नया रेखांकन एक नया रंग विधान एक नयी कला-सामग्री की दरकार होगी | गांधी प्रचलित रंगों, रेखाओं, कैनवासों में नहीं समां सकते | गांधी को किसी भी प्रचलित और लोकप्रिय कला -आंदोललन से चित्रित करना भी असभव है | गांधी एक तरह से हमारे समकालीन हैं इसलिए उनको कला में चित्रित करने के लिए एक ऐसी कला-प्रविधि विकसित करनी पड़ेगी जिसमें हम गांधी समग्रता में देख सकें, महसूस कर सकें | मदर टेरेसा को चित्रित करने का एक कला फॉर्म मकबूल फ़िदा हुसैन ने काफी मशक्क्त के बाद विकसित किया और मदर टेरेसा को चित्रित किया | हुसैन के मदर टेरेसा श्रृंखला के चित्रों को देखते ही मदर टेरेसा की मानवीयता, सेवा भाव, त्याग महसूस होने लगता है | मदर टेरेसा को पेंट करने के लिए फॉर्म की तलाश में हुसैन ने दुनिया की अधिकांश कलादीर्घाओं का खाक छाना था तब कहीं जाकर हुसैन को वह फॉर्म मिला जिसमेँ मदर टेरेसा को चित्रित किया; गांधी को भी चित्रित करने के पहले फॉर्म की तलाश करनी चाहिए ;रंगों का चुनाव भी करना चाहिए | वैचारिक और कला-संगत संघर्ष हर कलाकार के लिए शायद अनिवार्य हो सकता है | गांधी की अपनी कला-दृष्टि क्या थी? उनकी कला-दृष्टि को समझने से भी गांधी को चित्रित करने में मदद मिल सकती है; गांधी को चित्रित करने का उपयुक्त फॉर्म हासिल हो सकता है | ऊपर वर्णित तीसरी सरणी के कलाकारों को फॉर्म तलाशने की जरुरत है | कला के लिए कला का कोई मतलब नहीं है, महात्मा गांधी मानते थे | समकालीन कलाकारों को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि उनके पास जो कला-सामग्री उपलब्ध है उसीसे वह कुछ भी बना लेगें | इस मानसिकता से ग्रसित कलाकार गांधी को पेंट कर ही नहीं सकते हैं| महात्मा गांधी पर शोध करने वालों का कहना है कि गांधी जी ने कला में कभी गहरी रुचि नहीं दिखायी | इस बात के ठोस संकेत नहीं मिलते हैं | लेकिन 1936 में उन्होंने अपनी कला-दृष्टि की परख की कोशिश की जब उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस के फैज़पुर अधिवेशन में ग्रामीण कला और क्राफ्ट की एक कला-प्रदर्शनी लगाने की इच्छा प्रकट की | उन्होंने साफ़ किया था कि कला-प्रदर्शनी वैसी होगी जैसी कि उसकी परिकल्पना उनके मन में है | गांधी ने कला-प्रदर्शनी की अभिकल्पना की थी और उसे साकार किया था प्रसिद्ध भारतीय कलाकार नन्दलाल बोस ने | इस बात का प्रमाण है कि गांधी जी ने कला-प्रदर्शनी को साकार करने के लिए नन्दलाल बोस से सेवाग्राम आश्रम में आने का आग्रह किया जहां गांधी जी उनसे कला की अपनी समझ साझा करेंगे | ऐसा ही हुआ | नन्दलाल बोस सेवाग्राम आश्रम आए और उन दोनों ने कला को लेकर विस्तार से विमर्श किया | उनके बीच विस्तार से क्या बात-चीत हुई इसका विवरण अभी (?) कहीं उपलब्ध नहीं है लेकिन एक उम्मीद है कि महादेव देसाई जो कि गांधी जी की दिनभर की बातों को अपनी डायरी में दर्ज़ किया करते थे, शायद गांधी जी ने नन्दलाल बोस से जो कहा होगा दर्ज़ किया हो अगर देसाई की 1936 और उसके बाद की डायरी प्रकाशित हुई हो | गांधी जी और नन्दलाल बोस के बीच बातचीत के समय महादेव देसाई उपस्थित थे | यह बात हम साफ़ तौर पर जानते हैं कि गांधी जी ने नन्दलाल बोस से स्पष्ट कर दिया था कि अधिवेशन के दौरान जो कला-प्रदर्शनी लगेगी उसमें स्थानीय कला-सामग्रियों का ही इस्तेमाल होना चाहिए इसलिए नन्दलाल बोस से उन्होंने साफ-साफ़ कहा था कि शांतिनिकेतन से महंगी कलाकृतियों को नहीं लाएं और कांग्रेस पंडाल की सजावट के लिए फैज़पुर में स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्रियों का इस्तेमाल करें | पंडाल की सजावट ग्रामीण कला प्रदर्शनी जैसा ही दिखना चाहिए | फैज़पुर कांग्रेस अधिवेशन का उद्घाटन करते समय गांधी जी ने कहा था कि संपूर्ण तिलकनगर कला-प्रदर्शनी सरीखा है | उस कला-प्रदर्शनी को ग्रामीण-कला का बेहतरीन नमूना कहा था | नन्दलाल बोस गांधी के कला के सपने को साकार करने में सफल हुए होंगे | फैज़पुर पंडाल का विडियो प्रमाण नहीं है, न कोई फोटोग्राफ़ उपलब्ध है लेकिन गाँधी जी का ऐसा कहना ही प्रमाण है कि नन्दलाल बोस गांधी की कला-चिंतन को साकार कर पाए होंगे, गांधी का कला के बारे में दो विचार हमें साफ़ तौर पर दिखाई देते हैं - महंगी कला-सामग्रियों का निषेध, स्थानीय कला-सामग्रियों का उपयोग, कला का संबंध ग्रामीण सपनों के अनुरूप होना चाहिए | इन बिंदुओं का उपयोग हम 1995 से 2020 के बीच गांधी गाँधी-केंद्रित कला-प्रदर्शनियों के मूल्यांकन में अवश्य करेंगे | फैज़पुर कांग्रेस अधिवेशन के इस कला-प्रयोग पर गांधी के उद्बोधन ने कला के सारे आन्दोलनों को एक पल में धूमिल कर दिया था | उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने गांधी को पूरे हिंदुस्तान को घूम -घूम कर देखने की सलाह दी थी और महात्मा गांधी ने इस देश के गांवों को देखा था, लोगों को देखा था , गरीबी देखी थी, फ़कीरी देखी थी | ग़रीबी और फ़कीरी देखते-देखते वे खुद अर्द्ध-वस्त्र अर्ध-नग्न फ़क़ीर हो गए थे स्व-त्याग से, स्वचेतना से जिस पर चर्चिल ने फ़िकरा कसा था कि एक फ़क़ीर ब्रिटिश हुक़ूमत से बराबरी करने चला आता है | आइंस्टाइन ने सच्ची श्रद्धांजलि के शब्द कहे थे कि आनेवाली पीढ़ियां शायद ही इस फ़क़ीर के इस धरती पर चलने का विश्वास करे | 1938 में हरिपुरा में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ | वहां भी कला-प्रदर्शनी लगायी गयी उन्ही कला-सिंद्धांतों पर जिन पर फैज़पुर में कला-प्रदर्शनी लगी थी | हरिपुरा में गाँधी जी ने कहा, " आप यहां अनेक स्थलों पर कला की उपस्थिति देख सकते हैं | मैं इस कला की व्यख्या नहीं करुंगा | यह कला खुद आपकी आंखें अपनी ओर खीचेंगी |" तो कला वही है जो आपको देखने के लिए प्रेरित करे, मज़बूर कर दे | उन्होंने आगे कहा था , " चीज़ों के अंतर और वाह्य सौंदर्य को महसूस कराने का जरिया कला है |" फैज़पुर और हरिपुर के कांग्रेस अधिवेशवनों की कला-प्रदर्शनियां भारतीय दस्तकारी की विविध जीवंत परंपराओं को एक जगह पेश कर दिया गया था जिसमें राष्ट्रीयता की भावना भी प्रतीकात्मक रूप से अंतर्निहित थी | हरिपुर में नंदलाल बोस के साथ रविशंकर रावल और कनुभाई देसाई भी थे | हरिपुर पंडाल के पोस्टर्स के नन्दलाल बोस के रेखांकन उपलब्ध हैं | इसी प्रकार कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नन्दलाल बोस और जैमिनी रॉय ने मिलकर पंडाल के लिए म्यूरल बनाये थे | उन म्यूरलों के भी फोटोग्राफ्स उपलब्द्ध नहीं हैं | लेकिन जो बात गाँधी जी ने अपने अहिंसा के प्रयोगों के बारे में कहा था वही उनकी कला सम्मत विचारों पर भी लागू होता है | 'अहिंसा के प्रति लोग उदासीन थे, उसके बाद उसका उपहास किया, आरोप लगाए, दमन का रवैया भी अपनाया लेकिन अंततः अहिंसा का आदर करना सीखा | '
1930 में येरवदा मंदिर से काशीनाथ त्रिवेदी को लिखे एक पत्र में गांधी ने लिखा था, कोई भी गतिविधि जिसमें लोग शिरकत नहीं करते, कला नहीं है , बल्कि आत्ममग्नता है | गांधी एक दूसरे पत्र में लिखते हैं , 'चित्रकला खामोश संगीत है |' उनका मानना है कि धर्म और कला का उद्देश्य मनुष्य का नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन करना है | गांधी मानते हैं कि उनके जीवन में सचमुच बहुत कला है लेकिन आप वहां कला नहीं देख सकते जिसे आप मेरे ऊपर कला कहते हैं |
15 अगस्त, 1947 ब्रितानी गुलामी से आज़ादी का दिन था; एक आज़ाद हिंदुस्तान का उदय था लेकिन वह एक समय-बिंदु था जहां से बंटवारे से जनित विनाश की लीला का प्रारंभ था | भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन का समय था | एक कौम का दूसरे कौम पर अविश्वास का समय था | धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर ख़तरे का समय था | हिंसा के तांडव का समय था जिस हिंसा के ख़िलाफ़ आजीवन गांधी संघर्ष करते रहे| आज़ादी के समय से भारत और पाकिस्तान के बीच कई युद्ध हुए, नक्सलवादी हिंसा, पंजाब का उग्रवादी हिंसा , जम्मू और कश्मीर का आतंकवादी हिंसा, आपातकाल के समय की ज्यादतियां, और प्राकृतिक आपदाओं की हिंसा | यह देश इन हिंसाओं को सहते हुए अपना निर्माण करता रहा और गांधीवाद को भी याद करता रहा |
गांधी के 125 वीं वर्षगांठ पर एलटीजी आर्ट गैलरी ने 1995 में गांधी-केंद्रित कला प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसमें पचीस भारतीय कलाकारों की चित्रकृतियां शामिल की गयी थीं | कहा गया कि' हम इसमें गांधी को देखें |' गांधी के जीवन में जो भरपूर कला थी उनपर बनी कलाकृतियों में उनके जीवन की कला न्यूनतम दिखायी देती है | इन पचीस कलाकारों में शामिल थे- अनुपम सूद, अर्पणा कौर , भवेश सान्याल, धीरज चौधरी, एफ एन सूजा, जी आर संतोष, गोपी गजवानी, गुलाम एम शेख़, जतिन दास , कृशन खन्ना, लक्मण पई , माधवी पारेख, नागजी पटेल, मनु पारेख, नलिनी मलानी, नलिनी शेख, ओम प्रकाश, पुलक बिस्वाश, शमशाद, संजय भट्टाचार्य्या, सुनील दास, शमी मेंदीरत्ता, उमेश वर्मा, विजेंदर शर्मा, विवान सुंदरम | अर्पणा कौर की कला सूफ़िआना है तो गांधी को चित्रित करना उनके लिए मुश्किल नहीं है क्योंकि सूफ़ीवाद और गांधी काफी हद तक पर्यायवाची हैं | गांधी का वही रूप यहां दिखाई देता है जो अहिंसक भारतीय के मन में गांधी की मूरत बसा है | लेकिन इस चित्रकृति में कस्तूरबा की उपस्थिति एक ममतामयी स्त्रीशक्ति की उपस्थिति के समान है| अर्पणा का सूफ़िआना मिज़ाज़ और अंदाज़ गांधी कला के मुआफ़िक है| अनुपम सूद अहिंसा और शांति का अन्वेषण करने की कोशिश करते हैं जलरंगों के माध्यम से | भवेश सान्याल की रेखाएं ऐसी हैं जैसे कि सान्याल ने गांधी के लिए ही इन रेखाओं का अविष्कार किया हो | सूत कातते गांधी अर्थात गांधी के हाथ में चरखा, शांति और सौहार्द का प्रतीक अर्थात गांधी, चरखा, शांति, सद्भाव| एक अहिंसक का अहिंसक औजार या हथियार | पराश्रित को स्वाश्रित बनाने का उपक्रम | इसमें वह गांधी जो वे थे दिख रहे हैं | भवेश सान्याल ने लिखा है, वे 1947 में बतौर रिफ्यूजी लाहौर से दिल्ली आए | उन्होंने गाँधी जी को भंगी कॉलोनी में देखा था | वे गांधीजी से मिले तो नहीं लेकिन क़रीब से उन्हें देखा था | गांधी काम करते थे और सान्याल उनको चुपचाप देखा करते और उनका जल्दी-जल्दी रेखांकन बनाते | इस रेखांकन पर सान्याल का 1947 का हस्ताक्षर है | एक बात तो है कि सान्याल ने महंगे कला-सामग्री का इस्तेमाल गांधी को चित्रित करने के लिए नहीं किया बल्कि कागज और पेंसिल जो उस समय में उनके पास रहा होगा उसीसे रेखांकन बनाया | अगर सान्याल ने गांधी को अपने रेखांकन दिखाया होता तो गांधी को बहुत पसंद आता | धीरज चौधुरी गांधी को महसूस करते हैं और बुद्ध और गांधी के प्रचलित प्रतीकों से एक आकृतिमूलक संयोजन प्रस्तुत करते हैं जो शांति, अहिंसा और द्वेषरहित समाज का भाव पैदा करता है | एफ एन सूजा मैगज़ीन कागज पर रसायन के प्रयोग से क्रॉस बनाते हैं और इसको नाम देते हैं' रेड क्रुसिफिकेशन | ' गोपी गजवानी का विषय है 'आज़ादी' जिसे चित्रित करने के लिए गांधी का मास्क चेहरा दिखते हैं लेकिन उनकी लाठी प्रमुखता से दिखाई पड़ती है| लाठी गांधी के व्यक्तित्व का जरुरी हिस्सा है, एक सहारा, चलते रहने में सक्षम बनाये रखने की उम्मीद | जी आर संतोष उपवास करते ध्यानमग्न गांधी को चित्रित किया है | जतिन दास 'सहारा' शीर्षक से दो औरतों के सहारे चलते हुए गांधी को चित्रित किया है| कृष्ण खन्ना सह-अस्तित्व को रंगों के सह- अस्तित्व के माध्यम से चित्रित करते हैं| गांधी का यह दर्शनशास्त्रीय ट्रीटमेंट है | लक्मण पई एक अमूर्त आकृति बनाते हैं और नैतिक और मानसिक सामर्थ्य को दर्शाते हैं | मनु पारेख एक भावाकुल गांधी चित्रित करते हैं जो विवश है हिंसात्मक होते समाज को देख कर | माधवी पारेख गांधी के मास अपील को चित्रित कराती हैं | नागजी पटेल महात्मा का स्मारक बनाते हैं | नलिनी मलानी के 'हिंसा' के दृश्य को देख कर प्रेक्षक तीव्रता से गांधी को याद करता है| नीलिमा शेख , ओम प्रकाश , पुलक बिश्वास और शमशाद के चित्रों में गांधी का आभास है | संजय भट्टाचार्य्या , सुनील दास, शमी मेंदीरत्ता और उमेश वर्मा की कला में कोई न कोई जीवन मूल्य है जो हमें गांधी से जोड़ता है| गुलाम मोहम्मद शेख़ सर्व धर्म सम्भाव को चित्रित करते हैं | विजेंदर शर्मा का कैनवस 'गांधी कभी नहीं मरता' हमें एक दूसरे धरातल पर ले जाता है और यही बात विवान सुंदरम की कलाकृति के बारे में कही जा सकती है |
प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के संस्थापक-निर्देशक और कला-संयोजक आर एन सिंह ने महात्मा गांधी पर एक कला-प्रदर्शनी 2017 में बिहार संग्राहालय , पटना के लिए संयोजन -संकलन किया जिसका नाम दिया था -' गांधी कलाकारों की नज़र में | '; प्रदर्शनी पटना के बिहार संग्रहालय में लगायी गयी और जाहिर है कि अवसर महात्मा गांधी के चंपारण संघर्ष को याद करना था | उस कला-प्रदर्शनी पर बात करने के पहले उस महत्वकांक्षी कला योजना के प्रकल्पक आर एन सिंह और उनकी प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के बारे में बात होनी चाहिए| आर एन सिंह पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के एक किसान परिवार से आते हैं | अपनी जवानी के दिनों में दिल्ली की गलियों की ख़ाक छानने दिल्ली आ गए थे और एक दिन कनाट प्लेस स्थित धूमिमल आर्ट गैलरी पहुंच गए | वे बतलाते हैं कि वहां मन लगा के काम किया कुछ वर्षों तक जिसका लाभ यह मिला कि दीवार पर कलाकृति कैसे हैंग की जाती है इसका उनको कलात्मक अनुभव हुआ | कलाकृति को कैसे हैंग की जाती है, यह भी एक कला है जिसे कलादीर्घा में काम करने वाले श्रमिक, कलादीर्घा के मालिक और कलाकारों को भी आना चाहिए | कला में 'स्पेस' की समझ भी मायने रखती है | कलादीर्घा में प्रकाश-व्यवस्था का महत्व रंगमंच जैसा है | कलाकृति पर पड़ने वाली किरण का कोण भी महत्वपूर्ण है | राम नवल सिंह ने इन सारी बारीकियों को धूमिमल कलादीर्घा में काम करते हुए सीखा,समझा और अनुभव किया | धूमिमल कलादीर्घा के कला-संग्रहालय के माध्यम से आधुनिक मास्टर कलाकारों की कलाकृतियों से परिचित हुए | धूमिमल कलादीर्घा में समकालीन कलाकारों की आवाजाही लगी रहती थी तो उन लोगों से गहरी दोस्ती हुई | कई वर्षों तक राम नवल सिंह का संघर्ष धूमिमल कलादीर्घा में चलता रहा बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि राम नवल सिंह की कला-स्कूलिंग धूमिमल कलादीर्घा में ही हुई | इस बात का प्रमाण यह है कि धूमिमल कलादीर्घा के तत्कालीन मालिक इनसे बेहद प्रसन्न रहते और शायद उन्हीं के आशीर्वाद और उनकी प्रेरणा से सिंह कलादीर्घा के व्यवसाय में आगे चल कर स्वतंत्र रूप से आए | याद आता है कि सिंह ने दिल्ली के वसंत विहार में शाहजहां कलादीर्घा के नाम से कलादीर्घा का शुभारंभ किया था | कलाकारों, कला-प्रशंसकों, कला-क्रेताओं और कला-बाज़ार का केंद्र बन गया था शाहजहां कलादीर्घा | मशहूर प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के आर्टिस्टों के समर्थन और प्रेरणा से नवल किशोर सिंह ने प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी की स्थापना की | प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी की शाखाएं विदेशों में भी हैं और उनके बेटे हर्ष वर्धन सिंह कलादीर्घा की गतिविधियों का संचालन करते हैं |
महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे | दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के उनके प्रयोग मशहूर हुए और उन प्रयोगों की सफलता के बारे में जानकर भारतियों के दिल में उम्मीद की किरण जगने लगी थी | बिहार के चंपारण जिले के किसान अंग्रेज़ों के जुल्म से कुचले हुए थे | किसानों से जबरन नील की खेती कराई जाती और मनमाने ढंग से उनसे कर और लगान की उगाही होती | प्रताड़ित किसानों में से एक ने महात्मा गाँधी को चंपारण आने और उनकी दशा देखने का आग्रह किया | महात्मा गांधी 1917 में चम्पारण गए और सत्याग्रह किया | सत्याग्राह सफल रहा इस अर्थ में कि किसानों के जीवन में सुधार हुआ| महात्मा गांधी के सत्याग्रह जीवन की वह एतिहासिक घटना थी | जाहिर है क़िताबों में उस घटना की पढाई कराई ही जाती है ; उसके सौ साल होने पर विशेष आयोजन भी होने चाहिए | आर एन सिंह कला पारखी होने के साथ साथ समय पारखी भी हैं | गांधी के चंपारण यात्रा के सौ साल होने पर बिहार संग्रहालय के न्योते पर गांधी केंद्रित एक बड़ी कला-प्रदर्शनी का अभिकल्पन नवल किशोर सिंह ने 2017 में किया | उस प्रदर्शनी का नाम दिया गया 'गांधी : कलाकारों की नजर से |' गांधी को अपनी नज़र से देखने और चित्रित करने की कलाकारों को एक तरह से पूरी छूट मिल गयी | गांधी एक कलाकार के लिए बहुत जटिल चरित्र हैं | गांधी को चित्रित करना खेल नहीं हो सकता | गांधी खुद कलाकार नहीं थे लेकिन उनकी अपनी दार्शनिक कलादृष्टि थी | गांधी के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझे और महसूस किए बगैर उनको कला का विषय बनाना शायद एक पाखण्ड जैसा लग सकता है | गांधी के सत्य की अवधारणा ही कला की बुनियादी शर्तों पर आधारित है | सत्य के अनगिनत शेड्स हैं, असीमित कैनवास है | गांधी ने कहा भी है कि जीवन सभी कलाओं से बड़ा है ; वह व्यक्ति सबसे बड़ा कलाकार है जिसका जीवन परफेक्शन के क़रीब है | कला कला के लिए जैसी अवधारणा में महात्मा की कोई रूचि नहीं थी | उस प्रदर्शनी में 40 कलाकारों की कलाकृतियां सिंह ने शामिल की थी | मास्टर्स कलाकारों की कलाकृतियां महात्मा की जीवन दृष्टि को रूपायित करती हैं जबकि नए कलाकारों की कलाकृतियां 'कला कला के लिए ' सरणी में आएंगी | नंदलाल बोस गांधी के समकालीन थे| महात्मा गांधी के निमंत्रण पर सेवाग्राम गए जहां उन दोनों के बीच कला पर बाते हुई थीं | उस बातचीत का व्योरा तो नहीं मिल सका है लेकिन इतना मालूम है कि गांधी जी ने नन्दलाल बोस से फैज़पुर , हरिपुर इत्यादि कांग्रेस के अधिवेशनों में कला-प्रदर्शनियां लगाने का आग्रह किया था | कैनवस पर रेप्लिका माध्यम में नंदलाल बोस का 1930 का बनाया गांधी की चित्रकृति शामिल है | गांधी के पूरे व्यक्तित्व को नन्दलाल बोस ने चित्रित किया -दमन, हिंसा और अत्याचार के विरोध में चलता हुआ एक आदमी | यह चित्र 12. 4. 1930 की है | शीर्षक 'गांधी मार्च '; माध्यम; कैनवस पर रेप्लिका | रामकिंकर बैज ने पॉलिएस्टर रेसिन माध्यम में गाँधी का मूर्तिशिल्प बनाया ; शीर्षक है गांधी | 19" ऊँची पॉलिएस्टर रेसिन की ठोसपन में गाँधी के व्यक्तित्व की मज़बूती उभर कर आ गयी है | जो काम नन्दलाल बोस ने कैनवस पर 'गाँधी मार्च ' के माध्यम से किया है वही काम राम किंकर बैज ने पॉलिएस्टर रेसिन के मूर्तिशिल्प से किया है | इनकी कलाकृतियों से गांधी की आध्यात्मिक शक्ति निखर आती है | जैमिनी रॉय का कैनवस 'रबीन्द्रनाथ टैगोर के साथ गांधी' उन दोनों के सहयात्री होने की याद दिलाता है | जैमिनी रॉय की यह कृति ऐतिहासिक है | जैमिनी राय नन्दलाल बोस के साथ कांग्रेस अधिवेशनों में कला-मेला लगाने में सहयोग करने गए थे | के जी सुब्रमण्यन के गांधी विचारमग्न दिखायी देते हैं , किसी अगली जनकार्यवाही के बारे में सोचते हुए | एम एफ हुसैन के गाँधी एकदम अलग हैं , रंग-संयोजन अलग, प्रतीकात्मकता अलग | हुसैन के कैनवस पर गांधी के अनेक रूपों की कल्पना की जा सकती है | एस एच रज़ा के अमूर्तन में गाँधी के दर्शन का दर्शन किया जा सकता है | रज़ा की अपनी विशिष्ट कला-शैली है -केंद्र में बिंदु, सकेंद्रित वृतों से घिरा हुआ, एक ख़ास रंग-संयोजन के साथ | अकबर पदमसी के गांधी में एक ऐसा साधारण मनुष्य है जिसकी आध्यात्मिक ऊर्जा अथाह है |प्रमोद गणपत्ये का माध्यम कैनवस पर तैलीय रंग है, आकार भी बड़ा है -40" x 30"| शीर्षक:पदचिन्ह| एक जोड़ी चप्पल और सूर्यास्त के समय में क्षितिज का रंग| रंग-संयोजन आकर्षक और आध्यात्मिक है| इसमें हम गांधी के व्यक्तित्व को महसूस कर सकते हैं| विजय कौशिक का माध्यम पेंटेड कास्ट ग्लास है और वे गांधी की कई जानी-पहचानी चीजों का अपनी कलाकृति में इस्तेमाल करते हैं, जैसे छड़ी, छड़ी को कसकर पकड़ी हुई उनकी मुट्ठी,चश्मा मस्ज़िदों के गोलगुंबज और भी कई तरह की चीज़ें| विजय कौशिक की अमूर्तन में गांधी का दर्शन| यूसुफ भोपाल के जानेमाने कलाकार हैं| एक समय में उनकी धमक कला की दुनिया में काफी सुनाई देती थी | उनका माध्यम कैनवस पर एक्रेलिक रंगों और स्याही है | कैनवास का आकार बड़ा है 77" x 91"| कैनवस के आकार का कला में बड़ा महत्व है | आकार से कलाकार की क़ाबलियत झलकती है; गांधी तो हैं ही| सैम का का माध्यम कागज और स्याही महत्वपूर्ण है; मनुष्यता का वृक्ष और सिक्के में क़ैद गांधी के साथ आधुनिक भारत में हुए व्यवहार पर वक्तव्य है | वुड-कट प्रिंट माध्यम में श्याम शर्मा ने गाँधी के भारत को चित्रित किया है| तैलीय रंगों में मनीष पुष्कले ने कैनवस पर राजघाट पर विखरे पत्थरों को सजाया है| मनीष अलग अंदाज में गांधी को याद करते हैं | दिप्तो नारायण चटर्जी के चित्रों में गांधी और शेर आमने-सामने हैं| शेर शायद ताकत का प्रतीक है,ताकतवर ब्रिटिश सम्राज्य का प्रतीक है या शायद गांधी की आध्यात्मिक शक्ति दिखाने की कोशिश है | बीरेंद्र पाणी , धर्मेंद्र राठौर, राजेश श्रीवास्तव की कलाकृतियों में गाँधी को समझने की अच्छी कोशिश हुई है| सीरज सक्सेना का सिरेमिक रिलीफ एक संयोजन है | उनकी एक कलाकृति कागज़ पर मिक्स्ड मीडिया में है| कृष्ण दुरिसेट्टी की कलाकृति शुकुन देने वाली है | एक स्त्री की गोद में शांत-क्लांत लेटे हुए गांधी| प्रतुल कुमार दास उड़िया हैं और दिल्ली में रहते हुए उनकी कला में स्थानीयता दिखती रहे है| अपने युवा दिनों में ही वे एक स्थापित कलाकार हो चुके थे| कैनवस पर ऐक्रेलिक में 'दर्पण में प्रतिबिंब' गांधी पर अलग हटकर कलाकृति है| चारोंतरफ अंधकार और उस अंधकार को भेदते हुए लाठी के सहारे चलते गांधी| अनंत मिश्र और प्रशांत कलिता की कलाकृतियों को गांधी से जोड़ कर देखा जा सकता है | मुकेश शर्मा की कलाकृतियों में गांधी प्रतीकों में दिखाई देते हैं | फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी , सूरज कुमार काशी, मनीष रंजन जेना, भुनेश्वर भास्कर, दीपक टंडन, बी सी बोनिआ, मनोज मोहन्ती,सुनान्दो बसु, अरुणा तिवारी, विजय कुमार वंश, प्रिंस चांद, नवकाश, अतुल सिन्हा के चित्रों में गांधी के विभिन्न आयाम दिखते हैं| राजेंद्र कापसे का कैनवस ' राजनीति के चेहरे' भी गांधी के बरक्स समकालीन राजनीति की अशुद्धता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है | सत्य विजय सिंह, सोनम छपरना, गुरमीत मारवाह की चित्रकृतियों के गांधी के प्रचलित बिंब हैं| अर्चना सिन्हा का फाइबर-ग्लास का मूर्तिशिल्प 'कस्तूरबा का साथ गांधी का हाथ' प्रसंशनीय है | जांता, डंडा और मुट्ठी | अच्छा संयोजन | जांता शायद कस्तूरबा का प्रतीक है; डंडा और मुट्ठी गाँधी का| शायद ऐसी कलाकृति फाइबर माध्यम में बेहतर बनी है| मनोज कुमार बच्चन और मीनाक्षी झा बैनर्जी की कलाकृतियां उल्लेखनीय हैं | गांधी के प्रचलित प्रतीकों जैसे लाठी, चश्मा , नीला रंग, तीन बंदर, चरखा, खड़ाऊं, चप्पल इत्यादि से बनायीं गयी कुछ कलाकृतियां अपूर्ण और अपरिपक्व लगती हैं| गांधी के बारे में कोई स्टेटमेंट नहीं दे पाती हैं ; उनके चंपारण प्रवास की कोई कथा भी नहीं कह पातीं ; 2017 के बिहार पर भी कोई स्टेटमेंट नहीं बना पातीं | उस कला-प्रदर्शनी की यह आंशिक असफलता ही कही जाएगी लेकिन एक बात रेखांकित करने लायक यह है कि चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने के बहाने भारतीय कलाकारों ने गांधी को शिद्दत से याद किया है| गांधी को कला के माध्यम से श्रद्धांजलि आयोजित करने का बड़ा उपक्रम राम नवल सिंह और उनकी प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी और बिहार संग्रहालय ने 2017 में किया | इसके लिए राम नवल सिंह के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए और उन्हें बधाई भी देना चाहिए|
राम नवल सिंह और उनकी प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी ने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के भारत कला भवन के साथ मिलकर वाराणसी में गाँधी जी के 150 वीं जन्मदिन पर एक कला प्रदर्शनी का आयोजन किया | इस प्रदर्शनी की संकल्पना और क्यूरेशन प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के मालिक राम नवल सिंह ने किया | विदित है कि वर्ष 2019-20 गांधी जी के 150 वीं जन्म-वर्ष के रूप में देशभर में मनाया गया, ज्यातर सरकारी स्तर पर | राम नवल सिंह अपने तई अपनी निजी कलादीर्घा की ओर से इतने बड़े श्रद्धांजलि कला-प्रदर्शनी वाराणसी में आयोजित किया | चित्रकला और मूर्तिशिल्प की इस समूह-प्रदर्शनी को बिहार संग्रहालय में आयोजित चंपारण प्रदर्शनी के तर्ज पर इस प्रदर्शनी का नाम भी दिया गया ' 150 वर्ष गाँधी के: कलाकारों की नज़र से | ' बिहार संग्रहालय की कला-प्रदर्शनी में शामिल कई कलाकारों को इस प्रदर्शनी में भी शामिल किया गया जैसे, एम एफ हुसैन, एस एच रजा इत्यादि | गांधी- केंद्रित वाराणसी कला-प्रदर्शनी में कुल 78 कलाकारों की कलाकृतियां शामिल की गयीं जिनमें से लगभग 38 कलाकारों की वही कलाकृतियां वाराणसी की प्रदर्शनी में शामिल की गयीं जो चंपारण सत्याग्रह के उपलक्ष्य में 2017 में पटना संग्रहालय में लगायी गयी| 38 नए कलाकारों की कलाकृतियां शामिल की गयीं | वेटरन कलाकारों के साथ इस बार रामकुमार को भी शामिल कर लिया गया |रामकुमार अमूर्तन कला के वेटेरन है लेकिन गांधी को पेंट करते समय वे अमूर्तनता में आकृतिमूलकता समाहित करते हैं| गांधी का चेहरा उभर कर आ जाता है| गांधी को पेंट करने का यह परफेक्ट फॉर्म है | निकिता देव की कला में बहुत गहराई नहीं है ; उनकी चित्रकृति गांधी से मेल खाती है क्योंकि इसमेँ चरखा है, लाठी है, और चित्रकृति का शीर्षक है 'चरखा | ' इस कला-प्रदर्शनी में बिहार के कई कलाकारों को शामिल किया गया है जैसे, आनंद कुमार, अनंत मिश्रा,अनिल बाल , दिलीप कुमार शर्मा, नरेंद्र पाल सिंह , अजय नारायण,राजेश चांद,रवींद्र के दास,सचिन्द्र नाथ झा,सुरजीत के पोद्दार, उमेश कुमार| आनंद कुमार ने कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स पटना से बैचलर ऑफ़ फाइन आर्ट्स किया है| गांधी को समझने में उन्हें थोड़ा वक्त लगाना चाहिए| गांधी पेंटिंग के लिए आसान किरदार नहीं हैं फिर भी उनका प्रयास सराहनीय है | अनंत मिश्र की पेंटिंग में भी यही दिक्कत दिखाई देती है लेकिन गांधी से अलग करके इनकी कलाकृति को देखा जाए तो वह अर्थवान हो उठती है | मिश्र झारखंड के बोकारो से हैं | अनिल बाल पटना फाइन आर्ट्स कॉलेज के पढ़े हैं| इनकी पेंटिंग में गांधी दिखते हैं| अनिल ने गाँधी और पर्यावरण के बीच संबंध तलाशने की कोशिश की है, जो सही है | महात्मा गांधी हमेंशा प्रकृति के साथ एकात्म स्थापित करते रहे|उमेश कुमार की कलाकृति भी इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है| उमेश कुमार गांधी की प्रकृति को लेकर जो चिंताएं थीं उन्हीं को रूपाकार दे रहे हैं| पानी और साफ़ वातावरण| प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सामग्रियों के संरक्षण पर गांधी बल देते रहे लेकिन हमने प्रकृति का इतना दोहन किया कि आज पानी ख़रीद कर पीना पड़ता है | उमेश कुमार ने बताया था कि इस कलाकृति को इस प्रदर्शिनी के लिए ही बनाया था| दिलीप कुमार शर्मा ने मानवीय करुणा को चित्रित किया है | नरेंद्र पाल सिंह अब वरिष्ठ कलाकार हो चुके हैं | लंबे समय से कला की दुनिया में धमक रही है | अर्से बाद मैं उनकी कोई कलाकृति देख रहा हूं| 'सफ़ेद सत्याग्रह' वाराणसी प्रदर्शनी में शामिल थी| उनकी कला बदल गयी है , शैली भी बदल गयी है | गौर से देखने पर इसमें गांधी दर्शन होता है | एक फ्रेम में बकरी है, दूसरे फ्रेम में गांधी का आश्रम जीवन की सादगी हैं | इस तरह इस कलाकृति में कई फ्रेम हैं, कुछ न कुछ कहते हुए-दिखलाते हुए | शीर्षक पर हम अटक जाते हैं सत्याग्रह के सफ़ेद होने का क्या मतलब हो सकता है| अजय नारायण की कलाकृति और उसके शीर्षक में साम्य दिखता है | 'गांधीवादी दर्शन के धागे' यही शीर्षक है, जो कि सार्थक है| राजेश चांद हिंसा, अहिंसा, शांति, ,अशांति को रूपायित करते हुए दिख रहे हैं| रविंद्र के दास मेरे बिहार के पसंदीदा कलाकारों में रहे हैं| उनकी कला-सक्रियता जीवन के किसी मोड़ धीमी या कम नहीं हुई है| रविंद्र के कला संघर्षों से मैं प्रेरित होता रहा हूं | एक लंबे अर्से से उनके काम को देखने का अवसर मुझे नहीं मिला लेकिन फेसबुक के मार्फ़त उनकी कुछ पेंटिंग्स देखने का मौका इधर मिला| उनका भी शिल्प लगता है बदल गया है | 'गांधी यूनिवर्स' उनकी कलाकृति है जो वाराणसी कला-प्रदर्शनी में शामिल की गयी थी| इस कलाकृति को देखने में जो आनंद है, वर्णन में नहीं है फिर भी बताना जरुरी है उनके कैनवस का बैकग्राउंड ऐक्रेलिक हरा है जो ज्यादा चटक नहीं है लेकिन आँखों को शुकुन देता है| इस बैकग्राउंड के ऊपर गाँधी का बस्ट है, मूर्तिशिल्पीय शैली में नहीं है, पेंटिंग ही है | चिरपरिचित चश्में के पीछे गांधी की खुशनुमा आंखें है जो हमें प्यार से देख रही हैं| पेंटिंग यहाँ ख़त्म नहीं होती हालांकि पेंटिंग का सबसे महत्वपूर्ण अंश आँखे ही हैं | चरखा है, किसान है, हल है, हलवाहा है , पेड़-पौधे और भी कई इमेजेज| बिहार के कलाकारों में कैनवस और ऐक्रेलिक रंग प्रचलित है| पटना आर्ट्स कॉलेज का समकालीन कला में योगदान के महत्व को इन कलाकारों के काम से समझा जा सकता है| सचिन्द्र नाथ झा और सुजीत के पोद्दार की कलाकृतियां 'सत्याग्रह' और 'चंपारण में ' भी उल्लेखनीय हैं | यहां एक बात साफ़ करने की यह है कि बिहार के कलाकारों का मतलब फिलहाल इतना भर है कि वे पटना फाइन आर्ट्स कॉलेज के पढ़े हैं| अनीता सेठी, असित पटनायक ,दीपा नाथ गांधी के किसी न किसी पहलू को चित्रित करते हैं| सरबजीत बाबरा की कलाकृति 'सत्य की कताई' गांधी पर उत्कृष्ट रचना है | कुंदन कुमार, ए खान ,मनहर कपाड़िया, मीणा बया, नरेश शर्मा, निताशा जैनी, मधुकर राज, नुकारजु पाइला, प्रभीण्डर सिंह लाल, अशोक कुमार, राजेश एकनाथ पाटिल, रामचंद्र पोकले, रीना सिंह , संजीब गोगोई, सरोज कुमार , सत्य विजय सिंह, शैलेश बी ओ और कुमार रंजन की भी गांधी-केंद्रित कलाकृतियां इस प्रदर्शनी में शामिल थीं | इनमें से कइयों की कलाकृतियां अलग से उल्लेख की मांग करती हैं, मसलन, संजीब गोगोई की कलाकृति 'एकला चोलो रे | ' लेकिन गांधी अकेले चलने में भरोसा नहीं करते थे | पहले वे लोगों को चलने के लिए प्रेरित करते और बिना किसी के इंतज़ार के चल पड़ते, पीछे-पीछे हुजूम लग जाता | कला का विकास एक दिन में नहीं होता | कई परंपराएं कई आंदोलन कई विचार मिलकर समकालीन कला का निर्माण करते हैं | कला-सामग्रियां अपनी जगह पर महत्वपूर्ण हैं लेकिन जरुरी नहीं है कि कलाकार की अपनी कला-दृष्टि गांधी की कला-दृष्टि से मेल खाती हो लेकिन गांधी के व्यक्तित्व और दर्शन से किसी कलाकार का कोई मतभेद नहीं हो सकता| प्रत्येक कलाकार की अपनी कला महत्वपूर्ण है, उसपर टिप्पणी अनावश्यक है| उनकी कला गांधी और उनके जीवन को चित्रित कराती हैं| भारतीय कला इस बात का प्रमाण है कि सत्य और अहिंसा और मानवीयता से इस दुनिया का निर्माण होता है| फिर भी गांधी पर काम करते वक्त और सचेत रहने की शायद आवश्यकता है| एक कमी इस प्रदर्शिनी में खलती है - दक्षिण भारतीय कलाकार और मुस्लिम कलाकार इस प्रदर्शिनी से अनुपस्थित हैं| क्यूरेटर आर के सिंह ने सफाई दी कि किसी भेद-भाव के मन में ऐसा नहीं हुआ है | यह संयोग रहा होगा कि उस समय मुस्लमान कलाकार मिले नहीं होंगे | आर एन सिंह धर्म-निरपेक्षता में विश्वास करते है | पटना संग्रहालय कला-प्रदर्शनी के सारे कलाकार बनारस वाली कलाप्रदर्शनी में शामिल नहीं किये गए ? आर एन सिंह कहते हैं की गांधी केंद्रित कई कलाकृतिया बिक चुकी थी और उन कलाकारों ने कोई दूसरी कलाकृति बना के दी नहीं इसलिए इस प्रदर्शनी शामिल नहीं किये जा सकगे | आर एन सिंह मानते है कि बनारस कला भवन में हुए प्रदर्शनी के कुछ कलाकारों को गांधी के बारे में और सोच-विचाए करना चाहिए| पटना और वाराणसी की गांधी-केंद्रित कला-प्रदर्शनियों को ले कर कुछ सवाल उठे जिनका समुचित उत्तर इनके संयोजक राम नवल सिंह ही दे सकते थे ; उनसे हुई बात चीत का एक संक्षिप्त अंश प्रस्तुत है : प्रश्न : गांधी-केंद्रित दोनों ही कला-प्रदर्शनियों में युसूफ के अलावा कोई मुसलमान कलाकार शामिल नहीं किया गया है | क्या यह सोच-समझकर किया गया है? आज के भारत का मुसलमान कलाकार गांधी के बारे में क्या सोचता है , उसकी कलाकृति के माध्यम से देखना समझना दिलचस्प होता |
उत्तर: आप ठीक कह रहे हैं | मैंने इस तरह से सोचा ही नहीं | कला की दुनिया में सांप्रदायिक सोच होती ही नहीं है | प्रदर्शनियों के संयोजन के समय जो कलाकार मिलते गए और उनका काम पसंद आता गया मैं शामिल करता गया | इसके पीछे कोई भेदभाव वाली बात नहीं है | बल्कि मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि आगे मैं समुचित ध्यान रखूंगा |
प्रश्न : पटना प्रदर्शनी में आपने जितने कलाकारों को शामिल किया था, उनमें से लगभग आधे कलाकारों को वाराणसी की कला-प्रदर्शनी में शामिल नहीं किया ?
उत्तर: दरअसल जिन कलाकारों की बात आप कर रहे हैं उनकी कलाकृतियां बिक चुकी थीं और उन्होंने गांधी कोई काम किया नहीं था इसलिए स्वाभाविक था कि वे शामिल नहीं हो सकते थे | वाराणसी प्रदर्शनी के वक्त कुछ नए कलाकार मिले जिनके पास गांधी-विषयक काम थे और मैंने उनको शामिल कर लिया |
प्रश्न: मुझे लगता है कि अधिकांश कलाकारों को जो इन दोनों प्रदर्शनियों में शामिल हुए गांधी को और गहरायी से समझने की कोशिश करनी चाहिए थी ?
उत्तर : मैं आपसे सहमत हूं | नन्दलाल बोस , जैमिनी रॉय, राम किंकर बैज की पीढ़ी और उनके बाद की पीढ़ियां जिस तरह अपने आप को गांधी और उनके दर्शन से जोड़ते हैं (जुड़ते हैं) आज के कलाकार भावनात्मक स्तर पर गांधी ही क्या किसी भी विचारधारा से नहीं जुड़ते| कला और बाज़ार का रिश्ता कलाकारों पर वज़नी है |
प्रश्न: महात्मा गाँधी के 150 वें जन्मदिन पर ललित कला अकादमी की भी प्रदर्शनी आयोजित हुई लेकिन उसमें
नंदलाल बोस , जैमिनी रॉय, राम किंकर बैज, एम एफ हुसैन सरीखे भारतीय मास्टर्स कलाकारों की कलाकृतियां उसकी क्यूरेटर उमा नायर ने शामिल नहीं किया है ?
उत्तर: इसके बारे में मैं कुछ कह नहीं कह सकता | उन्होंने मुझसे उस प्रदर्शनी के लिए गाँधी-केंद्रित कलाकृतियां मांगीं और मैंने लगभग 100 कलाकृतियां देकर उनका सहयोग किया था |
ललित कला अकादमी महात्मा गाँधी के 150 वें जन्मवर्ष के समय पीछे कैसे रहती | अकादमी ने भी बापू शीर्षक से एक प्रदर्शनी का आयोजन रविंद्र भवन की कलादीर्घाओं में आयोजित किया | गांधी पर यह प्रदर्शनी प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के बिहार संग्रहालय और बनारस हिन्दू युनीवर्सिटी के भारत कला भवन की कला-प्रदर्शनियों से बड़ी थी | लेकिन इसका थीम उन दोनों कला -प्रदर्शनियों के थीम पर ही था -कलाकारों की नज़र से , मोहनदास करमचंद गांधी | सुपरिचित कला-समीक्षक उमा नायर को क्यूरेटर बनाया गया | इस प्रदर्शनी में, बताया गया है कि अधिकांश कलाकृतियां प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी से ली गयीं | प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी की भारत कला भवन में प्रदर्शित 76 कलाकृतियों में से 49 कलाकृतियां यहां शामिल की गयीं| दरअसल ललित कला अकादमी की गांधी केंद्रित प्रदर्शनी में कलाकृतियों के तीन खंड बनाये गए थे| पहला खंड प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी की कलाकृतियों का, दूसरा खंड उमा नायर की चुनी हुई कलाकृतियों और मूर्तिशिल्पों का जिनमे राम सुत्तार के मूर्तिशिल्प महत्वपूर्ण हैं, तीसरे खंड में मुंबई के जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट के छात्रों की कलाकृतियां है | दो बातें शुरू में : पहली बात जब थीम एक था , कलाकृतियां वही थीं तो क्यूरेटर भी राम नवल सिंह को ही बनाया जाना चाहिए था; उत्तम पचारने, अध्यक्ष, ललितकला अकादमी, ने कैटलॉग के अपने अध्यक्षीय संबोधन में प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के राम नवल सिंह का इसके लिए आभार व्यक्त किया है कि उन्होंने इस प्रदर्शनी के लिए गाँधी केंद्रित अच्छी कलाकृतियों को देकर सहयोग किया; दूसरी बात राम सुतार को छोड़ कर किसी भी वेटरन की कलाकृतियां उमा नायर ने इस प्रदर्शनी में शामिल नहीं किया | खैर, अकादमी की अपनी चाहत | ललित कला की इस प्रदर्शनी का विशेष आकर्षण प्रसिद्ध मूर्तिशिल्पी राम सुतार के मूर्तिशिल्प थे | राम सुतार कहते हैं , " जब मैं किसी आकृति को, ऐतिहासिक, राजनीतिक या आध्यात्मिक , को मूर्तिशिल्प में ढालता हूँ उसके शाश्वत तत्वों को पकड़ने की कोशिश करता हूँ | मैं चरित्र के सौंदर्य और चारित्रिक सामर्थ्य को समझने की कोशिश करता हूँ | " इसी समझ की वजह से राम सुतार गांधी को उनके समूचे आध्यात्मिक और चारित्रिक सौंदर्य के साथ मूर्तिशिल्प में ढाल पाते हैं, ढाल दिया है| राम सुतार एक ऐसे मूर्तिकार हैं, जिन्हें पत्थरों से इनसान गढ़ने का अनोखा हुनर है | 19 फरवरी 1925 को महाराष्ट्र के धूलिया जिले में एक गरीब बढ़ई परिवार में जन्मे राम सुतार बहुत छोटी उम्र से मूर्तियां गढ़ने लगे थे। इस दौरान महात्मा गांधी को गढ़ना उन्हें विशेष रूप से प्रिय रहा। स्कूल के दिनों में ही उन्होंने सबसे पहले मुस्कुराते चेहरे वाले गांधी को उकेरा था। सर जे जे स्कूल आफ आर्ट से विधिवत प्रशिक्षित राम सुतार को पत्थर और संगमरमर से बुत तराशने में विशेष रूप से महारत मिली। हालांकि कांस्य में भी उन्होंने कुछ बहुत प्रसिद्ध प्रतिमाएं गढ़ी हैं। सरल व्यक्तित्व के मृदुभाषी राम सुतार ने 1950 के दशक में पुरातत्व विभाग के लिए काम किया और अजंता एवं एलोरा की गुफाओं की बहुत सी मूर्तियों को उनके मूल प्रारूप में वापिस लाने का कठिन कार्य किया। पांचवे दशक के अंतिम वर्षों में वह कुछ समय सूचना और प्रसारण मंत्रालय से जुड़े और फिर स्वतंत्र रूप से मूर्तियां गढ़ने लगे।उनकी बनाई महात्मा गांधी की प्रतिमा उनकी सबसे चर्चित कलाकृतियों में से एक है और भारत सरकार ने गांधी शताब्दी समारोहों के अंतर्गत इस प्रतिमा की अनुकृति रूस, ब्रिटेन, मलेशिया, फ्रांस, इटली, अर्जेंटीना, बारबाडोस सहित बहुत से देशों को उपहार स्वरूप दी है। इसी तरह की एक प्रतिमा उन्होंने दिल्ली में प्रगति मैदान में 1972 के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार मेले के लिए बनाई थी जो अब इसका स्थायी भाग बन चुकी है। दिल्ली के पटेल चौक पर गोविंद वल्लभ पंत की 10 फुट ऊंची कांसे की प्रतिमा भी उनके रचनात्मक कौशल की गवाह है। राम सुतार की सधी उंगलियों ने पत्थर, इस्पात, कांसे से बहुत से इनसानों को आकार दिया है, जो देश के विभिन्न शहरों में मशहूर स्थानों में स्थापित हैं। पिछले 40 वर्ष में वह 50 से अधिक स्मारक प्रतिमाओं का निर्माण कर चुके हैं।मूर्ति के निर्माण की प्रक्रिया के बारे में राम सुतार बतलाते रहते हैं कि किसी भी आकार की प्रतिमा बनाने के लिए छोटे आकार की प्रतिमा बनाई जाती है और व्यक्ति के चेहरे- मोहरे, चलने, बात करने के ढंग और पहनावे के आधार पर उनके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाकर उसे उसके अनुरूप आकार दिया जाता है। वे यह भी कहते हैं कि किसी व्यक्ति को हूबहू पत्थर या किसी धातु में ढालना इससे कहीं ज्यादा मुश्किल काम है क्योंकि नयन नक्श, पहनावे, नख शिख में जरा सा फेरबदल पूरी प्रतिमा का स्वरूप बदल सकता है। गांधी के 150 वे जन्मदिन पर आयोजित अकादमी की प्रदर्शनी में राम सुतार के चार मूर्तियां शामिल की गयी थीं |गिगी स्कारिआ का आर्काइवल कागज़ पर डिजिटल प्रिंट का फोटोग्राफ के बारे में जानने से पहले गांधी के दांडी मार्च (नमक सत्याग्रह ) के बारे में जानना जरुरी है | दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग और तीनमूर्ति मार्ग के तिराहे पर (दिल्ली में राष्ट्पति भवन के बगल में ) प्रसिद्ध मूर्तिशिल्पी देवी प्रसाद चौधुरी का एक मूर्तिशिल्प है जिसका नाम है। ग्यारह मूर्ति |' ग्यारह मूर्तियों में सबसे आगे छड़ी के सहारे चलते हुए महात्मा गांधी हैं और उनके पीछे चलते हुए लोग जिनमें से दस की मूर्तियां बनाई गयी हैं | यह मूर्तिशिल्प 1930 के दांडी मार्च को दर्शाता है जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था | जब भी हम इस तिराहे से गुजरते हैं दांडी मार्च की याद तजा हो जाती है जिसके बारे में हमने किताबों में पढ़ी है | इसीसे प्रेरित होकर गिगी ने दांडी मार्च का एक समकालीन टेक्स्ट 'सबसे पहले कौन पथ से विचलित हुआ' बनाया है | गिगी की कलाकृति में भी ग्यारह मूर्तियां हैं और सबसे आगे महात्मा गांधी हैं लेकिन उनके पीछे के दस लोग दस उल्टी दिशाओं में चल रहे हैं | हमारे समय का यह विरोधाभाष है | मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स के 30 छात्र कलाकारों की कलाकृतियां भी इस प्रदर्शनी का हिस्सा थीं | अद्वैत घटक का कागज़ पर चारकोल से बनायीं गयी गांधी की आकृति उनकी फ़कीरी को दिखाती है | चर्चिल को गांधी की फ़कीरी की शक्ति से बड़ा डर था | आनदमोय बनर्जी का वुडकट भी आकर्षक है ; इसका शीर्षक है 'वह कौन है | ' किरमिजी रंग की पृष्ठिका पर चरखा की विशालता और अनेक छोटी-छोटी चीज़ें अर्पणा कौर की कलाकृति गांधी की रचनात्मकता को प्रतिबिंबित कराती है | अर्पणा कौर का सूफ़ीवाद हमेशा आकर्षक लगता है और यह भी लगता है कि अपने समय को समझने का जरिया सूफ़ीवाद भी है | दत्तात्रय आप्टे का जिंक निक्षारण माध्यम में 'आप अकेले नहीं ' भी शानदार कला है | हेमवती गुहा का काष्ठचित्र 'नेता' सीधे गाँधी से संबंधित तो नहीं लगता है लेकिन इसे गाँधी दर्शन से जोड़कर देखा जा सकता है | लौहधातु में ढले माधब दास की 'यात्रा ' एक प्रसंशनीय कृति है | माध्यम भी गज़ब होता है | सही माध्यम से बड़ा से बड़ा वक्तव्य संभव किया जा सकता है | तंतु के मूर्तिशिल्प में एक मनुष्य को विश्व को गतिमान करते दिखाया गया है और शीर्षक दिया गया है 'गांधी ' | निमेष पिल्लै की कलाकृति सुंदर र है और अर्थगर्भित भी | निवेदिता झा के गांधी पत्थर में तराशे गए हैं | कई अनेक अच्छी कलाकृतियां इस प्रदर्शनी में शामिल थीं | गांधी पर यह एक सफल प्रदर्शनी साबित हुई थी | संदर्भ : एल टी जी आर्ट गैलरी, प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी और ललित कला अकादमी की सूची-पुस्तिकाएं और राम नवल सिंह से बातचीत |